[ ३२ ] कर लिया और वे अपनी नवीन स्त्री के साथ तंजौर में रहने लगे। इसी स्त्री के पुत्र वेंकोजी थे। जीजाबाई अपने पुत्र शिवाजी के साथ शाहजी के मुख्य निवासस्थान पूने में रहती थीं और शाहजी की पैतृक जागीर का प्रबंध करती थीं। इस समय शाहजी ने दादाजी कोणदेव को शिवाजी के पालनार्थ एवं पैतृक संपत्ति के रक्षणार्थ नियत कर रक्खा था । यह जागीर दो लाख रुपये सालाना आय, की थी । बालक शिवाजी का पढ़ने लिखने में जी नहीं लगता था, परंतु अस्त्रविद्या के सीखने एवं दौड़ धूप के कामों में उसे अधिक उत्साह रहता था। उसका जी गौओ, ब्राह्मणों और देवालयों की बुरी दशा देख मुसलमानों की ओर से बहुत हट गया था और वह बाल्यावस्था से ही हिंदू राज्य स्थापित करने एवं म्लेच्छों को मार भगाने के स्वप्न देखने लगा था * । शाहजी मुसलमानों के नौकर थे, अतः उन्हें शिवाजी का यह हाल सुन कर बड़ा भय उपस्थित हुआ, और उन्होंने दादाजी को इसका निपेध करने को लिख भेजा, परंतु पिता और पालक दोनों के निपेध करने पर भी वालक शिवाजी ने अपना ढंग नहीं बदला । वह किलेदारों से एक एक करके दुर्ग लेने लगा। बड़ा आदमी होता हुआ भी छोटे छोटे लोगों के यहाँ तक यह चला जाता था, और इसी लिये वे लोग इसे बहुत चाहने लगे और सच्चे चित्त से इसके अनुयायी हो गए। इसी समय दादाजी कोणदेव मृत्युशय्यापर पड़े और मरने के
- वह समय ही ऐसा अनिश्चित था।