पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[ १८३ ] भौंह में बँकाई हीनताई कटियान मैं ॥ भूपन भनत पातसाही पातसाहन' मैं तेरे सिवराज आज अदल जहान मैं। कुच मैं कठोरताई रति मैं निलजताई छाडि सब ठौर रही आनि अबलान मैं ।। ५३ ।। साहू जी की साहिवी दिखाती कछू होनहार जाके रजपूत भरे जोम वमकत हैं। भारेऊ नगर वारे भागे घर तारे दै दै बाजे ज्यों नगारे घनघोर घमकत हैं ॥ व्याकुल पठानी मुगलानी अकुलानी फिर भूषन भनत मांग मोती दमकत हैं । दच्छिन के आमिल भगत डरि चहुँ ओर चंवले के आरपार ने जे चमकत हैं ।। ५४ ॥ १ वादशाही देश में न रहकर वादशाहों के शरीर भर में रह गई। २ नदी चम्बल के दक्षिण तक शिवाजी राज फैलाना चाहते थे।