[ १७१ ] बन-उपवन फूले अंबनि के झौर' झूले, अवनि सुहाति आभा औरे सरसाई है । अलि मदमत्त भये केतकी बसंती फूली, भूषन वखानै सोभा सबै सुखदाई है ।। बिषम बिड़ारिवे को बहत समीर मद, कोकिला की कूक कान कानन सुनाई है। इतनो सँदेसो है जू पथिक, तुम्हारे हाथ, कही जाय कंत सों बसंत ऋतु आई है ।। २१ ॥ मलय-समीर परलै को जो करत महा, जमकी दिसा ते आयो जम ही को गोतु है । साँपन को साथी न्याय चंदन छुए ते डसै, सदा सहबासी बिष गुन को उदोतु है । सिंधु को सपूत कलप- द्रुम को बंधु, दीनबंधु को है लोचन, सुधा को तनु सोत है। भूपन भनैरे भुव भूषन द्विजेस ते कलानिधि कहाय के कसाई कत होत है ॥२२॥ १ झा, बहुत सी पत्तीवाली डालें। २ पीली केतकी जो वसंत ऋतु में फूलती है । श्वेत केतको वर्षा में फूलती है। ३ ( मानिनी का ) विषम मद विदारिवे को समोर नहत । ४ विरह का वर्णन है । उद्दीपनों से शिकायत है। मलय समीर का तो कष्ट देना उसकी यमराज की दिशा (दक्षिण) से आने तथा साँपो के साथी होने से क्षम्य है, किंतु चंद्रमा का ऐसा करना अनुचित है, क्योंकि वह समुद्र का सपूत, कल्पवृक्ष का भाई ( कल्पवृक्ष और चंद्र दोनों उन १४ रनों में से हैं जो समुद्र मंथन से प्राप्त हुए थे ) दीन बंधु शिव भगवान् का नेत्र ( सूर्य और चन्द्र भगवान् के नेत्र कहे गए हैं )। सुधाकर, भुवनभूपण, द्विजेश [ चन्द्रमा को द्विजराज भी कहते हैं ] तथा कलानिधि है।
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