[ १७ ] . आए थे कि महाराज शिवराज का यश यहाँ तक पहुँचा है या नहीं । यह कह भूषणजी रुपया लिए बिना घर लौट आए। जान पड़ता है कि इसी प्रकार भूषणजी छत्रसालजी के यहाँ भी गए थे; पर अभूतपूर्व सम्मान से मुग्ध हो उन्हें शिवाजी के जीते जी भी छत्रसाल को अपनी सरकार मानना ही पड़ा।। थोड़े दिनों बाद ये महाराज शिवाजी के यहाँ फिर गए और समय समय पर उनके कवित्त बनाते रहे जिनमें शिवावावनी के छंद भी हैं। संभव है कि इन दिनों इन्होंने शिवाजी पर दो एक और ग्रंथ भी बना डाले हों जिनका अब पता नहीं चलता। सन् १६८० ईसवी में शिवाजी के स्वर्गवासी होने पर कदाचित् छत्र- सालजी के यहाँ होते हुए ये फिर घर लौट आए और उक्त छत्रसाल- जी के यहाँ आते जाते रहे। सन् १७०७ ई० में जब साहूजी ने दिल्लीश्वर की कैद से छूटकर अपना राज्य पाया, तब भूषणजी अवश्य ही उनके यहाँ गए होंगे और सदा की भाँति सम्मानित हुए होंगे। साल डेढ़ साल वहाँ रह कर भूषणजी फिर घर लौट आए और आनंद से रहने लगे होंगे। जान पड़ता है कि सन् १७१० ई. के निकट अपने अनुज मतिरामजी के कहने से ये महाशय बूंदीनरेश राव बुद्धसिंह के दरबार में गए और उनके वृद्ध प्रपितामह सुप्रसिद्ध महाराज छत्र- साल हाड़ा के दो छंद (छ० सा० दशक, छंद १ व २) और स्वयं राव बुद्ध का एक कवित्त (स्फुट नंबर ३) पढ़ा । अवश्य ही जैसी खातिर बात बूंदी में मतिरामजी की होती थी, उससे कुछ
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