पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२४४

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[ १५३ ] चढ़े भारे की। दुलहो' सिवाजी भयो दच्छिनी दमामेवारे दिली दुलहिनि भई सहर सितारे की ।। ४७ ।। _____ डाढ़ी के रखेयन की डाढ़ी सी रहति छाती बाढ़ी मरजाद जस हद हिंदुवाने की। कढ़ि गई रैयति के मन की कसक सव मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की ॥ भूपन भनत दिलीपति दिल धकधका सुनि मुनि धाक सिवराज मरदाने की। मोटी भई चंडी विनु चोटी के चवाय सीस खोटी भई संपत्ति चकत्ता के घराने की ।। ४८ ॥ जिन फन फुतकार उड़त पहार भार कूरम कठिन जनु कमल विदलि गो। विपजाल ज्वालामुखी लवलीन होत जिन झारन चिकारी मद दिग्गज उगलि गो॥ कीन्हों जेहि पान पयपान सो जहान कुल कोल हू उछलि जल सिंधु खलभलि गो । खग्ग खगराज महराज सिवराज जू को अखिल भुजंग मुगलद्दल निगलि गो॥४९॥ सुमन" मैं मकरंद रहत हे साहि नंद मकरंद सुमन रहत १ सम अभेद रूपक । २ जली हुई। जंगल में पत्तियाँ जलाई जाती है; उसे "दादा" कहते हैं । "दादा" मुख्यतः दोरहा अग्नि का नाम है। ३ इस छंद में कहीं कहीं शिवरान के स्थान पर छत्रसाल का नाम लिखा: - है, परंतु शुद्ध शिवराज ही का नाम समझ पढ़ता है। ४ सम अभेद रूपक। ५ यह छन्द स्फुट कविता से आया है।