पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२२६

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[ १३५ ] दीरघ दुखन की । तनियाँ न तिलक सुथनियाँ पगनियाँ न घामै बुमरात छोड़ि सेजियाँ सुखन की ॥ भूपन भनत पतिबाँह बहियाँ न' तेऊ छहियाँ छवीली ताकि रहियाँ रुखन की । बालियाँ विथुरि जिमि आलियाँ नलिन पर लालियाँ मलिन मुगलानियाँ मुखन की ॥ ६॥ ___ कत्ता की कराकनि चकत्ता को कटक काटि कीन्ह सिव- राज वीर अकह कहानियाँ । भूपन भनत तिहु लोक मैं तिहारी धाक दिल्ली औ बिलाइति सकल विललानियाँ ।। आगरे अगारन" है फाँदती कगारन हे बाँधती न वारन मुखन कुम्हिलानियाँ । कीवी कहें कहा औ गरीवी गहे भागी जाहिँ वीवी गहे सूथनी सु नीबी गहे रानियाँ ॥७॥ ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं । कंद १० मूल भोग करें कंद १ मूल भोग १ पति की बाँहों से नहीं वहीं अर्थात् अलग नहीं हुई। २ रूखों ( पेड़ों ) को। ३ अलि; भौरे। ४ कड़ाके से; जोर से चलने से। ५ मकानों में। ६ कहती हैं कि क्या करेंगी ? ७ नारा, धोती का बंधन, धोती, लहँगा। ८ मंदिर, मकान । ९ पर्वत । १० कंद मूलक ( व्यंजन ); ऐसे व्यंजन जिनमें कंद ( मोठा ) पड़ा हो। ११ जड़ें और जमीन के अंदर होनेवाले फल ।