पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२०१

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[ ११० ] जापै रूठे तौ निपट कठिनाई तुम वैर त्रिपुरारि के त्रिलोक में न बचिहौ ।।३२२॥

  • काकु से वक्रोक्ति-कवित्त मनहरण

सासता' खाँ दक्खिन को प्रथम पठायो तेहि वेटा के समेत हाथ जाय कै गँवायो है। भूपन भनत जौ लौ भेजौं उत औरै तिन वे ही काज बरजोर कटक कटायो है । जोई सूबेदार जात सिवाजी सों हारि तासों अवरंग साहि इमि कहै मन भायो है। मुलुक लुटायो तो लुटायो, कहा भयो ? तन आपनो वचायो महा- काज करि आयो है ।। ३२३॥ पुनः-दोहा करि मुहीम आये कहत हजरत मनसब दैन । सिव सरजा सो जंग जुरि ऐहैं वचिकै है न ॥३२४।। स्वभावोक्ति लक्षण-दोहा साँचो तैसो वरनिए जैसो जाति स्वभाव । ताहि सुभावोकति कहत भूषन जे कविराव ।।३२५।। उदाहरण-मनहरण दंडक दान समै द्विज देखि मेरहू कुवेरहू की संपति लुटायवे को

  • यहाँ शरीर बचाने मात्र से महा काज वास्तव में हुआ नहीं, किन्तु कहने के

ढंग से स्वर द्वारा उमरावों की निन्दा की गई है। दोहा वाले उदाहरण (नं० ३२४ ) में भी काकु मौजूद है। है न का अर्थ लेना पड़ेगा सच है न । - १ छंद नं० ३५ का नोट देखिए। २ इस कवित्त में दान, दया, तथा युद्ध वीर सभी वर्णित हैं और वीररस भी पूर्ण है।