पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/१६८

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विचलायो। के कर में सब दिल्लि कि दोलति औरहु देस घने अपनायो । वैर कियो सरजा सिव सों यह नौरंग के न भयो मन भायो । फौज पठाइ हुती गढ़ लेन को गाँठिहु' के गढ़ कोट गँवायो ।। २१७ ।।

अपरंच-दोहा

महाराज सिवराज तत्र वैरी तजि रस रुद्र । बचिये को सागर तिरे बड़े सोक समुद्र ॥ २१८ ।।

अधिक
लक्षण-दोहा

जहाँ बड़े आधार ते वरनत बढ़ि आधेय । ताहि अधिक भूपन कहत जानि सुग्रंथ प्रमेय ।। २१९ ।।

उदाहरण-दोहा

सिव सरजा तव हाथ को नहिं बखान करि जात । जाको बासी सुजस सब त्रिभुवन में न समात ।। २२० ॥

पुनः-कवित्त मनहरण

सहज सलील सील जलद से नील डील पव्यय से पील देत नाहिँ अकुलात है। भूपन भनत महाराज सिवराज देत कंचन को ढेरु जो सुमेरु सो लखात है ॥ सरजा सवाई कासों करि , गाँठ के अपने भी। धोती की मुरी में लोग रुपए पैसे रख लेते हैं, उससे यह मुहाविरा निकला है।