मैं विनु भाए ? । को कविराज चढे गज बाजि सिवाजि कि मौज मही विनु पाए ? ।। १५३ ।। - अन्यच्च-कवित्त मनहरण बिना लोभ को विवेक बिना भय युद्ध टेक साहिन सों सदा साहि तनै सिरताज के । विना ही कपट प्रीति विना ही कलेस जीति बिना ही अनीति रीति लाज के जहाज के ॥ सुकवि समाज विन अपजस काज भनि भूपन भुसिल' भूप गरिवनेवाज के । विना ही चुराई ओज विना काज घनी फौज बिना अभि- मान मौज राज सिवराज के ॥ १५४ ॥ अभाव से हीनता कीरति को ताजी करी वाजि चढ़ि लूटि कीन्हीं भई सब सेन बिनु बाजी विजेपुर' की । भूपन भनत भौसिला भुवाल धाक ही सों धीर धरवी न फौज कुतुब के धुर की। सिंह उदेभान बिन अमर सुजान विन मान विन कीन्ही साहिवी त्यों दिलीसुर की । साहिसुव महाबाहु सिवाजी सलाह बिन कौन पातसाह की न . पातसाही मुरकी ।। १५५ ।। समासोक्ति लक्षण-दोहा बरनन कीजै आन को ज्ञान आन को होय । १ भौसिला । २ वीजापुर । ३ धरेगी (बुंदेलखंडी बोली)। ४ प्रस्तुत के वर्णन में जहाँ अप्रस्तुत की सचाई मात हो, वहाँ समासोक्ति अलकार होता है।
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