पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/१२३

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[ ३२ ] "सिव सरजा न यह सिव है महेस" करि चोही उपदेस जच्छ रच्छक से होत हैं ।। ८९ ॥ पुनः-मालती सवैया एक समै सजि के सव सैन सिकार को आलमगीर सिधाए । “आवत है सरजा सम्हरौ” एक ओर ते लोगन वोल जनाए । भूपन भो भ्रम औरंग के सिव भौसिला भूप कि धाक धुकाए । धायकै “सिंह" कह्यो समुझाय करौलनि आय अचेत उठाए ।।९० ।- छेक अपन्हुति - छेकापन्हुति = कहिनुकरी ___ लक्षण-दोहा जहाँ और को संक करि, साँच छिपावत वात । छेकापन्हुति कहत हैं भूपन कवि अवदात ।।९१॥

  • उदाहरण-दोहा .

तिमिर वंस हर अरुन कर आयो, सजनी भोर ? सिव सरजा, चुप रहि सखी, सूरज-कुल-सिरमोर ॥९२|| दुरगहि वल पंजन प्रबल सरजा जिति रन मोहिं । औरंग कहै देवान सों सपन सुनावत तोहिँ ॥९॥ सुनि सु उजीरन यों कह्यो "सरजा, सिव महराज ?" भूपन कहि चकता सकुचि "नहिं, सिकार मृगराज" ॥१४॥ १ भयानक रस । २ शिकार खेलानेवाले ।

  • इसमें वक्ता अपने ही कथन का सच्चा प्रयोजन छिपाकर अतय्य का कथन

करता है।