पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/११३

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[ २२ ] कुतुब्वे जासु जुग सुज भूपन भनि । पाय म्लेच्छ उमराय काय तुरकानि ओन गनि ॥ यह रूप अवनि अवतार धरि जेहि जालिम जग दंडियव ! सरजा सिव साहसखग्ग धरि कलिजुग सोइ खल खंडियव ।। ६२ ॥ अपरंच-कवित्त मनहरन सिंह थरि जाने बिन जावली अँगल भठी हठी गज एदिल पठाय करि भटक्यो । भूपन भनत देखि भभरि भगाने सब हिम्मत हिये मैं धरि काहुवै न हटक्यौ । साहि के सिवाजी गाजी सरजा समत्थ महा मद्गल अफजलै पंजा वल पटक्यो। १ कुतुबशाह गोलकुंडा के “वादशाह' की पदवी थी। दक्षिण में पाँच खुदनुख्तार "वादशाहियाँ" थों; अर्थात् वीदर, अहमदनगर, एलिजपुर, वोजापुर और गोलकुंडा। प्रथम तोन को मुगलों ने पहले हो जीत लिया और अंतिम दो को १६८८ ई० में छोन लिया । इनको शिवाजी ने खूब हो सताया था। २ नावलो देश के जंगल को सिंह के रहनेवालो भट्ठी न जान कर हठो आदिल- शाह हायी रूपी अफजलखाँ को भेज कर चूक गया। यरि=सिंह की मट्ठो। ३ अफजलखाँ एक बोनापुरी सरदार था और आदिल शाह की ओर से शिवाजी से लड़ने गया था। युद्ध के पहले ही अफ़ज़ल खाँ ने शिवाजी के पिता को अपना मित्र वतला कर उनसे कहला मेजा कि "तुम हमारे मित्र-पुत्र अर्थात् भतीजे हो; इससे हम से अकेले आकर मिलो। फिर चाहे लड़ना चाहे साथ करना" । शिवाजो यह विचार कर कि कदाचित् अफज़ल कोई छल करे, सादे कपड़ों के नीचे