पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/११

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[ २ ] जाइय नृप कानन" की बात स्मरण कर चौथे की कौन कहे, श्रीरामचंद्र जी की भाँति प्रायः पहले ही पन में हमारी भाषा काव्यकानन को चल दी और भगवत भजन करने लगी। अतः ऐसे रसों को छोड़ तुलसीदास, सूरदास, कबीर इत्यादि कवीश्वरों की सहायता से इसने शांत के रस के बड़े ही मनोरंजक राग अलापे; परंतु असमय की कोई बात चिरस्थायी नहीं होती। सो हमारे साहित्य का चित्त भी शांत रस में न लगा। शांत रस का वास्तविक प्रादुर्भाव तो शृंगार के पश्चात् होता है । जब विपयों का उपभोग कर प्राणी कुछ थक सा जाता है, तभी उसके चित्त में, राजा ययाति की भाँति, उन विपयों की तृप्णा हटती है और निर्वेद का राज्य होता है। सो हमारे साहित्य ने अपना पुराना उत्साह तो छोड़ ही दिया था, अब वह निर्वेद को भी तिलांजलि दे अपना श्रृंगार करने में पूर्णतया प्रवृत्त हो गया और हमारे कवियों ने पुण्यात्मा सरस्वती देवी को "नायिकाओं" के गुणकथन में लगाया। इस कार्य में उनको विषयी और उद्योगशून्य राजाओं से विशेष सहायता मिली। शृंगार रस के वर्णन में उसी समय से अब तक हमारी कविता ऐसी कुछ उलझ पड़ी है कि उसका छुटकारा होना ही कठिन दिखाई देता है। यहाँ तो जहाँ देखिए, पति अथवा उपपति और पत्नी का विहार, मान, दूतीत्व, पश्चात्ताप, विरह की उसासे, उपपतियों और जारों की ताक झाँक, सुरतांत

  • अवश्य हो सूरदासनी ने भंगार एवं अन्य कतिपय कवियों ने और रसों की भी

कविता की है, पर प्रधानता शांत रस की हो रहो।