भूतनाथ इस वाप्त की जांच कर रही थी कि वह किस जगह पर कैद है और उसको कैद करने वाला कौन है। इस घाटी में न कभी वह पाया था न इसे कभी देखा था और न इसका हाल ही कुछ जानता था, अतएव उसे किसी तरह का गुमान भी न हुप्रा कि यह उसके पडोस की घाटी है अथवा इसके पास ही उसका निजी स्थान है जहां वह रहता है। थोडी देर तक बडे गौर से इधर उधर देखने के बाद भूतनाथ हताश होकर बैठ गया और तरह तरह की बातें सोचने लगा। उसे इस बात का बहुत ही दुख था कि उसके हरवे छीन लिए गए थे और उसका ऐयारी का वटुमा भी उसके पास न था मगर उसके उस जस्म मे कोई विशेष तकलीफ न थी जिसकी वदौलत वह बेहोश होकर कैदखाने को हवा खा रहा था। दोपहर की टनटनाती धूप भूतनाथ की आंखों के सामने घमक रही थो । भूख को तो कोई वात नही मगर प्यास के मारे उसका गला चटका जाता था । वह सोच रहा था कि मुझे दाना पानी देने के लिए भी कोई आवेगा या मैं भूखा ही पिंजरे में बन्द रहूगा क्योकि अभी तक किसी प्रादमी को मूरत उसे दिखाई न पडी थी। थोडी देर और वीत जाने के बाद एक औरत वहां प्राई जिसके पास भूतनाथ के लिए खाने पीने का सामान था। उसने वह मामान बडी होशि- मारी से जगले के अन्दर एक खास रास्ते से जा इसी काम के वास्ते बना हुमा या रख दिया और कहा, "लो गदावरसिंह । तुम्हारे लिए खाने पीने का सामान मा गया है, इसे खामो और मोत का इन्तजार करो।" भूत० । ( पानी का लोटा उठा कर ) हां ठोक है, बस मेरे लिए यही काफी है, मैं सिर्फ पानी ही पोकर मौत का इन्तजार करूंगा क्योकि जब तक में जगल मैदान और म्नान ध्यान इत्यादि कर्म न कर लूं भोजन नही मार सकता। मौरतः । सैर तुम्हारो खुशी, मेरा जो कुछ काम था उसे में पूरा कर
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