यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पहिला हिस्सा लगता हूँ अगर उचित समझिए तो श्राप लोग भी निपट लीजिए। भूत० । मैं आपके लिए खाने पीने की सामग्री भी लेता आया हूँ । दसवां बयान रात लगभग ग्यारह घडी के जा चुकी है । भूतनाथ गुलावसिंह और प्रभाकरसिंह उत्कएठा के साथ उस (अगस्तमुनि को) मूर्ति की तरफ देख रहे है। एक प्राले पर मोमवत्ती जल रही है जिनकी रोशनी से उस मंदिर के अन्दर की सभी चीजें दिखाई दे रही हैं । भूतनाथ और गुलाबसिंह का कलेजा उछल रहा है कि देखें अव यह मूति क्या वोलती है। यकायक कुछ गाने की आवाज आई, ऐमा मालूम हुआ मानो मूर्ति गा रही है, सब कोई वडे गौर से सुनने लगे

  • विहाग *

सबहि दिन नाहि वरावर जात । कबहू काला चला पुनि कबहू कबहू करि पधितात । कवहूं राजा रंक पुनि कबहू', सति उडगन दिखलात || पं करनी अपनी सब चान, फल वोये को सात । गनरप फरम छिप नहि कवहू, प्रत सवै तुल जात ।। नवहि दिन नाहि बरावर जात । एनके वाद मूति इस तरह वोलने लगी :- "ग्राहा ! आज में अपने सामने किस किस को बैठा देख रहा हूँ महात्मा प्रभाकरसिंह । धर्मात्मा गुलाबसिंह ! मै भी धर्मात्मा जैसे कहू, पया सम्मप है कि भविष्य में भी यह धर्मात्मा बना रहेगा? "पर जो कुछ होगा देखा जायगा । हाँ, यह तीसरा प्रादमी मेरे सामने फोन है ! वही गदाधरसिंह जिराने एक दम से अपनी काया पलट कर दी मोर एक सुन्दर नान को छोड के भूतनाव के नाम में प्रविद्ध होना पसन्द किया ! याह, दुनिया में किसी को किसी पर विश्वास और भरोसा न करना .