पहिला सिह को मालूम हो गया कि भूतनाथ इन तीनों ऐयारो को मेरी निगरानी के लिए छोड गया है। कुछ सोच विचार कर प्रभाकरसिंह उठ खडे हुए और घोरे धोरे ईशानकोण की तरफ जाने लगे। एक घडी तक वरावर चले जाने के बाद वह उस शिवालय के पास पहुचे जिसका जिक्र अभी थोडी दर हुई भूतनाय से कर चुके थे और जिसका नाम भूतनाथ ने अगस्तमुनि का प्राश्रम बतलाया था। यह स्थान बहुत ही सुन्दर पीर सुहावना था पोर पहाड को तराई में कुछ ऊ चे की तरफ चढ कर वना हुया था इस जगह दूर दूर तक वेल के पेड बहुतायत के साथ लगे हुए थे और वेलपत्र को छाया से यह जगह बहुत ठणठी जान पडती थी। मन्दिर यद्यपि वहु त वडा न था मगर एक सूबसूरत छोटी सी चारदीवारी से घिरा हुआ था। आगे की तरफ एक मामूली सभामण्डप और बीच मे मूर्ति के आगे एक छोटा सा कुण्ड घना हुना था जिसमे पानी हर दम भरा रहता था। वह कुण्ड यद्यपि वहुत छोटा अर्थात् डेढ हाथ चौडा तथा लम्बा और उसी अन्दाज का गहरा था मगर उसके साफ और निर्मल जल से संकडो मादमियो का काम चल सकता था। किसी पहाजे गोते का मुह उसके अन्दर जरूर था जिसमें से जल वरावर पाता और वह कर ऊपर की तरफ से निकल जाता था। इस कुगर के विषय मे लोग तरह तरह की गये उडाया करते थे जिसके लिसने को यहा कोई घावश्यकता नहीं । प्रभाकरनिर श्राफर इस मन्दिर के सभामण्डप में बैठ गए और भूत- नाप तथा गुलाबसिंह का इन्तजार करने लगे। उन्होंने देखा कि भूतनाम के शागिर्द ऐयारी ने उनका पीछा नहीं छोडा है बल्कि इधर उपर चलते फिरते दिखाई दे रहे है। सन्ध्या हुवा ही चाहती थी जव गलावसिंह को लिए हुए भूतनाथ वहां मा पहुंचा जहा प्रभाकरसिंह वैठे उन दोनो का इन्तजार कर रहे थे ।
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