भूतनाथ ८२ सोचते हुए पहाड के किनारे भूतनाथ को घाटो की तरफ धीरे धीरे पले जा रहे हैं। वे जानते हैं कि भूतनाथ की घाटी का दर्वाजा अब दूर नहीं है तथा उन्हें यह भो गुमान है कि भूतनाथ या गुलाबसिंह ताज्जुब नहीं कि मिल जाय । इसलिए वे धीरे घोरे कदम उठाते हैं, इधर उधर चौकन्ने होकर देखते हैं और कभी कभी पत्थर को किसी सुदर चट्टान पर बैठ जाते हैं। प्रभाकरसिंह का सोचना बहुत ठोक निकला । वे एक पत्थर को चट्टान पर बैठ कर कुछ सोच रहे थे कि भूतनाथ ने उन्हें देख लिया और तेजो के साथ लपक कर इनके पास आया, मगर इन्हें सुस्त और नदास देख कर उसे ताज्जुव और दुख हुआ क्योकि जिस तपाक के साथ वह प्रभाकरसिंह से मिला चाहता था उस तपाक के साथ प्रभाकरसिंह उससे नही मिले, न तो उसका इस्तकबाल किया और न उसे आवभगत के साथ लिया। हा इतना जरूर किया कि भूतनाथ को देख कर हठ खडे हुए और एक लम्बी सास लेकर बोले, "बस भूतनाथ ! तुमसे मुलाकात हो गई, अब केवल गुलाबसिंह से मिलने को अभिलापा है ! इसके बाद फिर कोई भी मुझे प्रभाकरसिंह को सूरत में नही देख सकेगा।" भूत० । (पाश्चर्य से) क्यो क्यो, सो क्यों ? प्रभाकर० । तुम जानते हो कि इस दुनिया में मेरा कोई भी नहीं है । एक इन्दुमति थी सो वह भी ऐसे ठिकाने पहुच गई जहा कोई भी जाकर उससे मिल नहीं सकता। भूत । नही नही प्रभाकरसिंह । ये शब्द वहादुरो के मुंह से निकलने योग्य नहीं है । क्या इन्दुमति का कुछ हाल मापको मालूम हुआ प्रभा० । कुछ क्या वल्कि बहुत । भूत० । किस रीति से? प्रभा० । पाश्चर्यजनक रीति से । भूत० । किसको जुवानी? ?
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