भूतनाथ ७२ प्रभाकर० । ठीक है इत्तिफांक से मैं उसी सुरंग के अन्दर पहुँच गया था जिसमें देखने के सूराख पत्थर के दोको से बन्द किये हुए थे। कला। जी हों मगर हम लोगों को मापसे पहिले इस बात की खबर लग चुकी थी। प्रभाकर० । तब तुम लोगो ने क्या किया ? कला० । यही किया कि इन्दु बहिन को उस आफत से छुडा लिया। प्रभाकर० । (प्रसन्नता से) तो इन्दु कहाँ है ? कला० । एक सुरक्षित और स्वतत्र स्थान में है। अब आप भोजन करते जाहए और बातें किए जाइए, नही तो मैं कुछ न कहूगी, क्योंकि प्राप दिन भर के भूखे है बल्कि ताज्जुब नहीं कि दो दिन ही के भूखे हो । यहाँ जो कुछ खाने पीने का सामान पडा हुअा था उसके देखने से मालूम हो कि अपने दिन को भी कुछ नहीं खाया था । मजबूर होकर प्रभाकरसिंह ने भोजन करना प्रारम्भ किया और साथ हो साथ बातचीत भी करने लगे। प्रभाकर० । अच्छा तो मैं इन्दु को देखा चाहता हू । कला० । जो नहीं, अभी देखने का उद्योग न कीजिए । कल जैसा होगा देखा जायगा क्योकि इस समय उसकी तबीयत खराव है, वह दुश्मनों के हाय से चोट खा चुकी है, यद्यपि उसने बडे साहस का काम किया और अपने तीरो से कई दुश्मनो को मार गिराया। इस खबर ने भी प्रभाकरसिंह को तरदुद में डाल दिया। वे इन्दु को देवा चाहते थे और कला समझाती जाती थी कि अभी ऐसी करना अनु- चित होगा मौर वैद्य को भी यही राय है। वही मुश्किल से कला ने प्रभाकरसिंह को भोजन कराया और कल पुन मिलने का वादा करके वहां से चली गई। प्रभाकरसिंह को इस बात का पता न लगा कि वह किस राह मे पाई यो पौर विन राह मे चलो गई। +
पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/६७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।