थी जब एक लौंडी ने आकर उन्हे जगाया ।
प्रभाकर० । (लौंडी से) क्या है ?
लौंडी० । मैं आपके लिए भोजन की सामग्री लाई हूँ।
प्रभाकर० । कहाँ है ?
लौंडी० । (ऊँगली का इशारा करके) उस कमरे मे ।
प्रभाकर० । मै भोजन न करूंगा, जो कुछ लाई हो उठा ले जाओ।
लौंडी । मै ही नही कला जी भी आई है जो कि उसी कमरे में बैठी आपका इन्तजार कर रही हैं।
कला का नाम सुनते ही प्रभाकरसिंह उठ बैठे और उस कमरे मे गए जिसकी तरफ लौंडी ने इशारा किया था। यह वही कमरा था जिसको दिन के समय प्रभाकरसिंह देख चुके थे और जिसमें नहाने धोने का सामान तथा जलपान के लिए भी कुछ रक्खा हुआ था।
कमरे के अन्दर पैर रखते ही कला पर उनकी निगाह पड़ी जो कि एक कम्बल पर बैठे हुई थी प्रभाकरसिंह को देखते ही वह उठ खड़ी हुई और उसने बड़े अाग्रह से उन्हें उस कम्बल पर बैठाया जिसके आगे भोजन की सामग्री रक्खी हुई थी। बैठने के साथ ही प्रभाकरसिंह ने कहा-
प्रभा० । कला, आज तुम लोगो की बदौलत मुझे बड़ा ही दुख हुआ।
कला० । (बैठ कर) सो क्या ?
प्रभा० । (चिढे़ हुए ढंग से) मेरी आँखो के सामने से इन्दु हर ली गई और में कुछ न कर सका
कला० । ठीक है, आपने किसी सुरंग से यह हाल देखा होगा।
प्रभाकर० । सो तुमने कैसे जाना ?
कला० । यहा दो सुरंगे ऐसी हैं जिनके अन्दर से भूतनाथ की घाटी बखूबी दिखाई देती है जिनमें से एक के अन्दर के सूराख पत्थर के ढोको से मामूली ढंग से बन्द किए हुए है और दूसरी के सूराख खुले हुए हैं जिनके राह से हम लोग बराबर भूतनाथ के घर का रंग ढंग देखा करती है।