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पहिला हिस्सा
 


एक दूसरा प्रभाकरसिंह था * ।

प्रभाकरसिंह के कलेजे में एक बिजली सी चमक गई, अपनी सी सूरत बने हुए एक ऐयार का वहा पहुंचना और इन्दु का उसके पैरों पर गिर पड़ना उनके लिए कैसा दुखदाई हुआ इसे पाठक स्वयं विचार सकते हैं । केवल इतना ही नही इनके देखते ही देखते नकली प्रभाकरसिंह ने अपने साथी को विदा कर दिया और इसके बाद वह इन्दुमति को कुछ समझा कर अपने साथ ले भागा।

प्रभाकरसिंह चुटीले साप की तरह पेंच खा कर रह गए, कर ही क्या सकते थे? क्योंकि वहाँ तक इनका पहुँचना बिल्कुल ही असम्भव था ।

उन्होंने पत्थरो को हटा कर रास्ता निकालने का फिर एक दफे उद्योग किया और जब कुछ नतीजा न निकला तो पेचोताव खाते हुए वहां से लौट पडे़ । जब सुरंग के बाहर हुए तो देखा कि सूर्य भगवान अस्त हो चुके है और अन्धकार चारो तरफ से घिरा आ रहा है, अस्तु तरह तरह की बातें सोचते और विचारते हुए प्रभाकरसिंह बंगले की तरफ लौटे और जब वहां पहुँचे तो देखा कि हर एक स्थान में मौके मौके से रोशनी हो रही है।

प्रभाकरसिंह उसी कमरे में पहुंचे जिसमें विमला से मुलाकात हुई थी और फर्श पर तकिए के सहारे बैठ कर चिन्ता करने लगे। वे सोचने लगे--

"वह कौन अादमी होगा जिसने आज इन्दु का इस तरह धोखे मे डाला' इन्दु की बुद्धि पर भी कैसा परदा पड़ गया कि उसने उसे बिल्कुल नही पहिचाना | पर वह पहिचानती ही क्योकर ? एक तो वह स्वयम् घब- ढ़ाई हुई थी दूसरे सन्ध्या होने के कारण कुछ अन्धकारसा भी हो रहा था, तीसरे वह ठीक ठीक मेरी मूरत बन कर वहाँ पहुँचा भी था, मुझमे और उसमें कुछ भी फर्क नहीं था, कम्बख्त पोशाक भी इसी ढंग की पहिने हुए था, न मालूम इसका पता उसे कैसे लगा ! नहीं, यह कोई आश्चर्य की बात

  • देखिए तीसरा बयान, भोलासिंह और नकली प्रभाकरसिंह का इन्दु

को धोखा देना।