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भूतनाथ
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इन्दु० । सो क्यो?

विमला० । तुम अपनी सूरत बदलो और इस बात का वादा करो कि जब मैं उनके सामने तुम्हें ले जाऊ तो चुपचाप देख लेने के सिवाय उनके सामने एक शब्द भी मुहँ से न निकालोगी।

इन्दु० । आखिर इसका सबव क्या है ।

विमला० । सबव पीछे बताऊंगी।

इन्दु० । अच्छा तो फिर जो कुछ तुम कहती हो मुझे मंजूर है । "अच्छा तो मैं भी बन्दोबस्त करती हूँ ।" यह कह कर विमला उठी और कुछ देर के लिए कमरे के बाहर चली गई। जब लौटी तो उसके हाथ में एक छोटी सी सन्दूकड़ी थी। उसी मे से सामान निकाल कर उसने इन्दुमति की सूरत बदली और वैसी ही एक झिल्ली उसके चेहरे पर भी चढ़ाई जैसी आप पहिरे हुए थी । जब हर तरह से सूरत दुरुस्त हो गई तब हाथ का सहारा देकर उसने इन्दु को उठाया और कमरे के बाहर ले गई।

कमरे के बाहर एक दालान था जिसके एक बगल में तो ऊपर की मंजिल में चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ थी तथा उसी के बगल में नीचे उतर जाने का रास्ता था और दालान के दूसरी तरफ बगल में एक सुरङ्ग का मुहाना था मगर उसमें मजबूत दरवाजा लगा हुआ था। इन्दु को उसी सुरङ्ग में विमला के साथ जाना पड़ा।

सुरंग बहुत छोटी थी, तीस पैतिस कदम जाने के बाद उसका दूसरा मुहाना मिल गया जहाँ से सुबह की सुफेदी निकल आने के कारण मैदान की सूरत दिखाई दे रही थी। जब इन्दुमति वहाँ हद्द पर पहुँची तब उसकी आँखों के सामने वही सुन्दर घाटी या मैदान तथा बंगला था जिसका हाल हम इसके चौथे बयान में लिख पाए हैं, या यो कहिए कि जहाँ पर एक पेड़ के साथ लटकते हुए हिंडोले पर प्रभाकरसिंह ने तारा को बैठे देखा था। वही त्रिकोण घाटी और वही सुन्दर बंगला जिसके चारो कोनो पर