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१०५ तीसरा हिस्सा कभी बटुए की तलाशी लेता, कभी अपने जेवों को टटोलता और कभी कमर मे देख कर बनावटी ताज्जुब से हाथ पटकता और कहता कि 'न मालूम चीठी कहाँ रख दी है । मेरे ऐसा देवकूफ भी कोई न होगा ! भला ऐसी जरूरी चीठी को इस तरह रखना चाहिए कि समय पर जल्दी मिल न सके। चोठी को खोज और कपडो की तलाशी में दारोगा ने बहुत देर लगा दी और तब तक उस मोमवत्तो का धूया तमाम कमरे में फैल गया। वेचारी जमना सरस्वती और इन्दुमति चीठी की चाह में वडी उत्कण्ठा से दारोगा की हरकतो को खडी खडी देख रही थी मगर उन लोगो को यह नहीं मालूम होता था कि इस घूए की बदौलत हम लोगो की हालत बदलती चली जा रही है। घोडी देर ही में वे तीनो बेचारी औरतें वेहोश होकर जमीन पर लेट गई और तव दारोगा ने वडी फतहमन्दी और खुशी की निगाह से उन तीनो की तरफ देखा। वारहवां वयान यह नहीं मालूम होता कि कृष्णपक्ष है या शुक्लपक्ष अयवा रात है या दिन क्योकि हम इस समय जिस स्थान पर पहुचते हैं वहा चिराग या इमी तरह की किसी रोगनो के सिवाय और किमी सच्चे उजाले या वादनी का गुजर नहीं हो पाता । हम यह भी नहीं कह सकते कि यह काई तहखाना है या नुरंग, अन्नपारमयो कोई कोठडी है या वालाखाना, सिर्फ इतना ही देख रहे है कि एक मामूली कोठडी में जिसमें सिवाय एक मद्धिम चिराग के और किसी तरह को रोगनो नही हूँ, जमना, सरस्वती और इन्दुमति वैठो गर्म गर्म पानू गिग रही है, जिसका विशेष पता उनका हिचकियो से नग न्हा है। उन तीनों के पैर वर्ष हुए है और किमो मोटो रस्सी के सहारे वे एक लकटो के गन्ने के साथ भी बंधी हुई हैं जिसमें पैर से चलना तो अनन्भव हो है घिसक कर भी दो कदम इधर उधर न जा सके। उन तीनो -