६५ तीसरा हिस्सा यकायक उनकी निगाह हरदेई के ऊपर पड़ी जो उसी दीवार की तरफ बढ़ी जा रही थी जिसके अन्दर जमना सरस्वती और इन्दुमति को प्रभाकरसिंह ने छोड़ा था। हरदेई को देखते ही प्रभाकरसिंह पेड़ के नीचे उतरे और वडी तेजी के साथ उसी तरफ जाने लगे। यह हरदेई वास्तव मे वही नकली हरदेई थी जो एक दफे प्रभाकरपिह को धोखे में डाल चुकी थी अर्थात् भूतनाथ का शागिर्द रामदास इस समय भी हरदेई की सूरत बना हुआ भूतनाथ के साथ ही इस तिलिस्म के अन्दर लाया हुआ था और पुन जमना सरस्वती इन्दुमति और प्रभाकरसिंह को धोखे में डाल कर अपना या अपने प्रोस्ताद का कुछ काम निकालना चाहता था, मगर इस समय उसे यह खवर न थी कि प्रभाकरसिंह मुझे देख रहे हैं और न वह प्रभाकरसिंह से मिला ही चाहता था । रामदाम ने जव प्राशा के विरुद्ध प्रभाकरसिंह को अपनी तरफ पाते देखा तो ताज्जुब में पाकर चौंक पडा और भाग जाना मुनासिब न समझ कर खडा हो गया और सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिये । प्रभाकर० । (नकली हरदेई के पास पहुच कर) हरदेई, तू यहा कैसे आई? हरदेई० । मेरी किस्मत मुझे यहा ले पाई । मै तो उसी समय अपनी जान से हाथ धो चुकी थी जिम समय आपमे अलग हुई थी, मगर मेरी किस्मत में अभी कुछ दिन और जीना बदा था इसलिए एक महापुरष को मदद मे वच गई। प्रभाकर । असिर तुझ पर क्या प्राफत आई थी सो तो सुनू हरदेई. • आप जव थकावट मिटाने के लिये उम चबूतरे पर नंट गये तो उसी समय मापकी पास लग गई, मै वटी देर तक गुपचाप बैठी बैठी घवटा गई यो इस लिए उठ कर वर उपर टहलने अगो । घूमती फिरती मैं कुछ दूर निकल गई, उसी समय यकायक पत्तो की भरमट में से एक पादमी निकल माया जो म्याह कपडे और नाव में अपने बदन योर चेहरे को धिपाये हए था। मैं उसे देग गार घबरा गई और दौर फर भापकी
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