Co तीसरा हिस्सा उस समय तो उनको अजीव हालत हो गई जब उस टुकडे के एक कोने में कुछ वधा हुआ उन्होंने देखा । खोलने पर मालूम हुआ कि वह एक चोठी है जिसकी लिखावट ठीक इन्दुमति के हाथ की लिखावट सी है, परन्तु प्रफ- सोस कि इस रोशनी में तो वह पढी ही नही जाती और चिता की प्राच अपने पास पाने की इजाजत नही देती । अव उस चिता में इतनी रोशनी भी नहीं रह गई थी कि दूर हो से इस लिखावट को पढ सकें। इस समय कोई दुश्मन भी प्रभाकरसिंह की वेचनी को देखता तो कदा- चित उनके साथ हमदर्दी का वर्ताव करता। धीरे धीरे चिता ठढो हो गई मगर प्रमाकरसिंह ने उसका पोछा न छोड उसी के पास ही बैठ कर रात बिता दी। हाथ में वह कागज लिए हुए फई घण्टे तक प्रभाकरसिंह सुबह की सुफेदी का इन्तजार करते रहे और जव पर पढने योग्य चांदना हो गया तब उसे बडी बेचनो के साथ पढने लगे। यह लिसा हुमा था "प्राणनाथ । बस हो चुका, दुनिया इतनी ही थी। मैं अब जाती हूं भोर तुम्हें दयामय परमात्मा के सुपुर्द करती हू । मै जब तक इस दुनिया में रही बहुत ही सुखी रहो, तरह तरह के दुम भोगने पर भी मुझे विशेप कप्ट न हुया क्योकि तुम्हारे प्रेम का सहारा हर दम मेरे साथ था। इसके अतिरिक्त पाशालता की हरियाली जिसका सब कुछ सम्बन्ध तुम्हारे ही शरीर के साथ था मुझे नदेव प्रसन्न रखता था, परन्तु अब इस दुनिया में मेरे लिए कुछ नहीं रहा और मेरी वह प्राशालता भी विल्कुल ही मूख गई । तुम्हारे प्रति- रिक्त यदि और कुछ इस दुनिया में मुझे देखना होता तो में अवश्य जीतो रहती परन्तु नही, गव तुम्ही ने मुझे त्याग दिया तो प्रब क्यो और किसके लिए जोऊ ? मै इसी विचार से बहुत सन्तुष्ट हूं कि तुम्हें मेरे लिए दुस न होगा क्योकि किनो दुष्ट की कृपा से तुम सझमे रुष्ट हो चुके हो इस- लिए तुमने मुझे त्याग दिया और तुम्हें मेरे मरने का कुछ भी दुरा न होगा, पर यदि पदाचित किसी समय रस जालसाजी का नंटा फूट जाय और .
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