भूतनाथ पहुचे तो उसी खिडकी की राह उसके अन्दर घुसे जिस राह से पहिले गये थे। इस समय वह रोशनी जो एक दफे बडी तेजी के साथ बढ़ चुकी थी धीरे धीरे कम होने लगी थी। जहां पर जमना सरस्वती और इन्दुमति से मुलाकात हुई थी वहा पहुँच कर प्रभाकरसिंह ने देखा कि एक बहुत बडी चिता सुलग रही है और बहुत ध्यान देने पर मालूम होता है कि उसके अन्दर कोई लाश भी जल रही है जो अब अन्तिम अवस्था को पहुच कर भस्म हुआ हो चाहती है। धूए मे बदबू होने से भी इस बात की पुष्टि होती थी। प्रभाकरसिंह का दिल बडी तेजी के साथ उछल रहा था और वे बेचैनी और घबराहट के साथ उस चिता को देख रहे थे कि यकायक उनकी पाले डवडवा पाई और गरम गरम भासू उनके गुलाबी गालों पर मोतियो की तरह लुढ़कने लगे। इससे भी उनके दिल की हालत न सम्हली और वे बडे जोर से पुकार उठे, "हाय इन्दे | क्या इस धधकती हुई अग्नि के अन्दर तू ही तो नही है ?" इतना कह कर प्रभाकरसिंह जमीन पर बैठ गए भौर सर पर हाथ रख कर अपने वेचन दिल को काबू में लाने की कोशिश करने लगे। घण्टे भर तक अपने को सम्हालने का उद्योग करने पर भी वे कृतकार्य न हुए और फिर उठ कर वही वेदिली के साथ पुन उस चिता की तरफ देखने लगे जो अव लगभग निर्धूम सी हो रही थी परन्तु उसको रोशनी दूर दूर तक फैल रही थी। यकायक प्रभाकरसिंह की निगाह किसी चीज पर पडो जो उस चिता से कुछ दूरी पर थी परन्तु आग की रोशनी के कारण अच्छी तरह दिखाई दे रही थी। प्रभाकरसिंह उसके पास चले गये और बिना कुछ सोचे विचारे उसे उठा कर बडे गौर से देखने लगे। यह कपडे का एक टुकहा था जो हाथ भर से कुछ ज्यादे वडा था। प्रभाकरसिंह ने पहिचाना कि यह इन्दुमति की उसी साडी में का एक टुकड़ा है जिसे पहिरे हुए उसे अाज उन्होंने उस जगह पर देखा था । इस टुकडे ने उनके दिल को चकनाचूर कर दिया और
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