भूतनाथ - 1 था जो अभी तुमसे चाते कर रहा था " सरस्वती ० । मुझे नहीं मालूम कि वह कौन या । प्रभा०। फिर तुमसे इस तरह की बातें करने की उसे जरूरत हो क्या थी? सरस्वती० । सो भी मैं कुछ कह नही सकती। प्रभाकर० । हा ठीक है, मुझसे कहने की तुम्हें जरूरत ही क्या है ! खैर जाने दो, मुझे भी विशेष सुनने को कोई आवश्यकता नहीं है, मैं तो पहिले ही हरदेई की जुबानो तुम लोगो को बदकारियो का हाल सुन कर अपना दिल ठडा कर चुका था, अव इस आदमी की बाते सुन कर और रहा सहा शक जाता रहा । यद्यपि तुम लोग इस योग्प थी कि इस दुनिया से उठा दी जाती और यह पृथ्वी तुम्हारे असह्य बोझ से हलकी कर दी जाती, परन्तु नहीं, उस आदमी की तरह जो अमो तुमसे बाते कर रहा था मै भी तुम लोगों के खून से अपना हाथ अपवित्र नहीं किया चाहता । खैर तुम दोनों वहिनो से तो मुझ कुछ विशेष कहना नहीं है, रही इन्दुमति सो इमे में इस समय से सदैव के लिए त्याग करता है। शास्त्र में लिखा हुआ है कि किसी का त्याग कर देना मार डालने के ही बराबर है। इन्दुः । (रोती हुई हाथ जोड कर) प्राणनाथ | क्या तुम दुश्मनो की जुबानी गढी गढाई वाते सुन कर मुझे त्याग कर दोगे ! प्रमा० । हा त्याग कर दूंगा, क्योंकि जो कुछ बाते तुम्हारे विषय में मैने सुनी है उन्हें यह दूसरा सबूत मिल जाने के कारण मैं सत्य मानता हूँ । केवल इतना ही नही तुम्हारी हो जुबान से उन बातो की पुष्टि हो चुकी है। अब इसको भी कोई जरूरत नहीं कि तुम लोगों को इस तिलिस्म के बाहर ले जाने का उद्योग करू अनु अब में जाता हूँ। (छानी पर हाथ रख कर में इस वज की चोट को इसो छातो पर सहन करूगा और फिर जो कुछ ईश्वर दिखावेगा देख गा । मुझे विश्वास हो गया कि वस मेरे लिए दुनिया इतनी ही थी। इतना कह कर प्रमाकरसिंह वहा से रवाना हो गये । इन्दुमति रो रो
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