भूतनाथ | ३२ |
आए है वह जरूर तुम्हें मालूम होगा और जरूर वे तीनो कम्बल्स औरत भी इसी वगले के भीतर होगी जिन्होने मुझे धोखा देकर गुमराह किया है । तुम जानो उन्हे इत्तिला दो कि प्रभाकरसिह धा पहुँचे ।"
उन दोनो पहरेवालो ने प्रभाकरसिंह की बात का कुछ भी जवाव न दिया। प्रभाकर्रामह गुस्से में आकर कुछ कहा ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक मौलसिरी के पेड के ऊपरी हिस्से पर जा पडी जो इस बंगले के पूरव और दक्षिण के कोने पर वडी खूबसूरती के साथ खडा था। इस बंगले के चारो कोनो पर चार मौलसिरी के बडे बडे दरख्त थे जो इस समय खूब ही हरे भरे थे और उनके फूलो से वहां की जमीन ढक रही थी तया उनकी खुशबू से प्रभाकरसिंह का दिमाग मुअत्तर हो रहा था।
जिम मौलसरी के पेड के ऊपर प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी उसके ऊपरी हिस्से मे रेशमी डोर के साथ एक हिंडोला लटक रहा था जो झुकी हई डालियो की आड में छिपा हुआ था मगर जव हवा के झपेटो से उसको डालियां हिलती और इधर उधर हटती थी तो उस हिंडोले पर एक सुन्दर औरत बैठी हुई दिसाई देती थी और इसी पर प्रभाकरसिंह की निगाह पडी यो । गौर से देखने पर प्रभाकरसिंह को इन्दुमति का गुमान हुआ और वे दौड कर उस पेड के नीचे जा खडे हुए।
प्रभाकरसिंह ने सर उठा कर पुन उस औरत को देखा इस प्राशा से कि यह इन्दुमति है या नही इस बात का निश्चय कर लें, मगर प्रभाकरसिंह का स्याल गलत निकला क्योकि वह वास्तव में इन्दुमति न थी, हाँ इन्दमति से उमको नूरत रुपये मे वारह पाना जरूर मिलती जुलतो थी, यहां तक कि यदि यह औरत केवल अपने दोनो होठ और अपनी ठुढी हाय ने टांक कर प्रभाकरसिंह की तरफ देखती होतो तो दोपहर की चमचमाती हुई रोशनी में और दस हाय भी दूरी मे भो वे इसे न पहिचान सक्ते और यही कहते कि यह जरूर मेरी इन्दुमति है।
हा मुमय वह मौरत भी प्रभाकरसिह को तरफ देख रही थी। जव वे