४० भूतनाथ कर प्रादमी दूसरी तरफ निकल जा सके । यह पहा • बहुत वडा और ऊपर से प्रशस्त था बल्कि यह कह सकते हैं कि ऊपर से कोसों तक चौडा था परन्तु इस मन्दिर में से न तो कोई उस तरफ जा सकता था और न उस तरफ से कोई इस मन्दिर के अन्दर पा सकता था। प्रभाकरसिंह ने उस मदिर और चारदीवारी को वहे गौर से देखा। मदिर के अन्दर किसी देवता की मूर्ति न थी, केवल एक फौवारा बीचोबीच में बना हुआ था और दीवारो पर तरह तरह की सुन्दर तस्वीरें लिखी हुई थी। मन्दिर के आगे सभामण्डप में लोहे के बडे बडे सन्दूक रक्खे थे मगर उनमें ताले का स्थान विल्कुल खाली था अर्थात् यह नही जाना जाता था कि इनमें ताली लगाने की भी कोई जगह है या नहीं। उन लोहे के संदूकों को भी अच्छी तरह देखते प्रभाकरसिंह मन्दिर के वाहर निकले और खडे होकर कुछ सोच ही रहे थे कि उस जालीदार चार दीवारो के वाहर मैदान में मदिर की तरफ आती हुई कई भौरतो पर निगाह पडी। प्रभाकरसिंह घबडा कर दीवार के पास चले गये और इसके सूराखो में से उन औरतो को देखने लगे। इस दीवार के सूराख बहुत बडे बडे थे, यहा तक कि आदमी का हाथ बखूबी उन सूराखो के प्रदर जा सकता था। प्रभाकरसिंह ने देखा कि कला विमला और इन्दुमति घोरे धीरे इसी मन्दिर को तरफ चली आ रही है और उन तानो के चेहरे से हद दर्जे की उदासी और परेशानी टपक रही है। उस समय प्रभाकरसिंह को हरदेई वालो वात भी याद आ गई मगर क्रोध प्रा जाने पर भी उनका दिल उन, के पास गये विना बहुत बेचैन होने लगा। यद्यपि वे दीवार के पार जाकर उन सभो से मिल नहीं सकते थे तथापि सोचने लगे कि अब इन लोगो के साथ कैसा वताव करना चाहिये ? हरदेई को जुवानी जो कुछ सुना है उसे साफ माफ कह देना चाहिए या धोरे धीरे सवाल करके उन बातो को जाँच करनी चाहिए। तीनो
पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/२८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।