३१ | पहिला हिस्सा |
तग हो गया कि एक आदमी से ज्यादा के चलने की जगह न थी। कुछ आगे बढने पर रास्ता खतम हुअा और एक वन्द दर्वाजे पर हाथ पड़ा। धक्का देने से वह दर्वाजा खुल गया और प्रभाकरसिंह ने चौखट के अन्दर पैर रक्सा। दो ही कदम जाने वाद वह दर्वाजा पुन वन्द हो गया और साथ ही इसके आस्मान की सुफेदी पर भी प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी जो उनके सामने की तरफ बढती हुई मालूम पडती थी। लगभग पचीस तीस कदम जाने वाद प्रभाकरसिंह खोह के बाहर निकले और तब उन्होने अपने को एक सरसन्न पहाड की ऊंचाई पर किसी गुफा के बाहर खडे पाया ।
इस समय सवेरा हो चुका था और पूरव तरफ पहाड की चोटी के पोछे सूरज की लालिमा दिखाई दे रही थी। प्रभाकरसिह ने अपने को एक ऐसे स्थान मे पाया जिसे एक सुन्दर और सोहावनी घाटी कह सकते है । यह घाटी त्रिकोण अर्थात् तीन तरफ से पहाड के अन्दर दबी हुई थी और जमीन के बीचोबीच में एक सुन्दर वंगला बना हुआ था जो इस जगह से जहां प्रभाकरसिंह खडे थे लगभग चौथाई कोस की दूरी पर पहाट के नीचे की तरफ था । प्रभाकरसिंह वहां पहुंचने के लिए रास्ता तलाश करने लगे मगर सुभीते से उतर जाने के लायक कोई पगडण्डो नजर न आई, तथापि प्रभाकरसिंह हतोत्साह न हुए और किसी न किसी तरह से उद्योग करके नीचे की तरफ उतरने ही लगे । वह सोच रहे थे कि देरों हमारा दिन कसा कटता है, किस गहदशा के फेर में पड़ते हैं, किसका सामना पडता है, और साने पीने के लिए क्या चीज मिलती है तथा यहाँ से निकलने का रास्ता ही क्योकर मिलता है। उस बंगले तक पहुंचने में प्रभाकरसिंह को दो घण्टे से ज्यादा देर लगी। पहाड की चोटियो पर धूप अच्छी तरह फैल चुरी थी मगर बंगले के पास अभी धूप का नाम निशान नहीं था।
बंगले के दर्वाजे पर दो जवान लडके पहरा दे रहे थे जिन्होंने प्रभा- करसिंह को रोका और पूछा, "तुम यहाँ क्योकर पाए ?" इसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने क्रोध में प्राकर कहा, "जिस तरह हम