३३ | तीसरा हिस्सा |
किसी दिन तुमसे रंज भी हुई थी ?
हरदेई० । (मन में) इस सवाल का क्या मतलव ? (प्रगट) नही नगर कभी कुछ रंज हुई थी तो केवल उसी विषय में जो मै आपसे वयान कर चुकी हूं।
इस जवाव को सुन कर प्रभाकरसिंह चुप हो गये और फिर कुछ गौर करके बोले, “खैर कोई बात नही देखा जायगा, यह जगत ही 'कर्मप्रवान' है, जो जैसा करेगा वैसा फल भोगेगा । यदि वे तीनो इस तिलिस्म के अदर हैं तो मैं उन्हें जरूर खोज निकालूगा, तू सब कर और मेरे साथ साथ रहे।"
इतना कह कर प्रभाकरसिंह ने फिर वही छोटो किताव निकाली और पढने लगे जिसे इस तिलिस्म के अन्दर घुसने के पहिले एक दफे पढ़ चुके थे।
प्रभाकरसिंह घन्टे भर से ज्यादे देर तक वह किताव पढते रहे और तब तक रामदास बराबर उनके चेहरे की तरफ गौर से देखता रहा । बव वे उस किताब मे अपने मतलव को बात अच्छी तरह देख चुके तब यह काहते हुए उठ खडे हुए कि 'कोई चिन्ता नही, यहां हमारे खाने पीने का सामान बहुत कुछ मिल जायगा और हम उन सभी को जल्द ही खोज भी निकालेंगे । (नकली हरदेई से) प्रा तू भी हमारे साथ चलो प्रा।'
रामदास उस किताव के पढ़ने और उनके इन शब्दो के कहने से उमझ गया कि उस किताव में जरूर इस तिलिम्म का ही हाल लिसा हुआ है, अगर किसी तरह वह फिताव मेरे हाथ लग जाय तो महज ही में मै यहा से निकल भागू' बल्कि और भी बहुत सा काम निकालू।
रामदास अर्थात् नकली हरदेई को साथ लिए हुए प्रभाकरसिंह उसी जंगल में घुस गये और दक्षिण मुकते हुए पूरव की तरफ चल निकले । प्राधे घंटे तक बराबर चले जाने के बाद उन्हें एक बहुत ऊची दीवार मिली जिसको लम्बाई का वै कुछ अंदाजा नही कर सकते थे और न इसको जांच करने को उन्हें कोई जरूरत ही थी। उस दीवार में बहुत दूर तक हूठने के बाद इन्हें एक छोटा सा दर्वाजा दिखाई दिया। वह दर्वाजा लोहे
भ० ३-३