तीसरा हिस्सा नागर० । श्राप जानते ही हैं कि आपके थाने के साथ ही लोडियां फाटक बन्द कर दिया करती है। हमारे यहाँ सिवाय आपके दूसरे किसी ऐसे सर्दार का माना जाना तो है ही नहीं कि जिससे मुझे किसी तरह का लगाव या मुहब्बत हो, हाँ बाजार में बैठा करती हू इसलिए कभी कभी कोई मारा पीटा पा ही जाया करता है, सो भी जब आप पाते हैं तो उसी वक्त फाटक वन्द कर दिया जाता है। वावू साहब इसका कुछ जवाव दिया ही चाहते थे कि एक आदमी यह कहता हुमा कमरे के अन्दर दासिल हुआ, "झूठ भी बोलना तो मुह पर।" इस प्रादमी की सूरत देखते ही वावू माहव चौक पडे और घबराहट के साथ बोल उठे, “यही तो है। ?" यह वही ग्रादमी था जिसे बाबू साहब और उनके मगी नाथियो ने कपालमोचन के कुए पर देखा था और जिसके डर से अभी तक बाबू माहब की जान पर सदमा हो रहा था। वाव साहब की ऐसी हालत देख कर उस आदमी ने जो सभी अभी पाया पाकर", "डरो मत डरो मत, मै तुम्हारा दुश्मन नहीं हू वरिक उतना कह उस प्रादमी ने अपने हाथ की गठरी एक किनारे रस वा और मामूली कपडे उतार कर इस तरह खूटियो पर सजा दिये कि जैसे यहाँ उसी का घर हो या इस घर पर उसका वहुत बटा अधिकार हो और नित्य ही वह यहां प्राता जाता हो । यह प्रादमी असल में भृतनाथ ( गदाधरसिंह ) था जिसने नागर की गहरी दोरती थी मगर बाबू नाहब को इसकी कुछ भी सवर न थी और न कभी ऐमा ही इत्तिफाक हुमा था कि इस जगह पर इन दोनो का सागना हुआ हो। हां वायू साह ने गदावरसिंह का नाम जरूर नुना पा और यह भी सुना था कि वह मामूली प्रादमी नहीं है। नागर ने जिस सातिरदारी भोर पावोभगत के नाम भूतनाय का सम्मान दिया और प्रेम दिखाया उससे वावू साहब को मालूम हो गया कि दोस्त है।
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