भूतनाथ आपुस में लड भिड जाय तो पाम से किसी अडोसी पडोसी की सहायता भी नही मिल सकती। इसी कूए पर सन्ध्या होने से कुछ पहिले हम काशी के पाच सात खुश- मिजाज आदमियो को वैठे हसी दिल्लगी करते तथा भग बूटी के इन्तजाम में व्यस्त देख रहे हैं। कोई भग घो रहा है कोई पीसने का चिकना पत्थर घोकर जगह साफ करने की धुन में है, कोई टिकिया सुलगा रहा है और कोई गौरैया (मिट्टी के हुक्के) में पानी भर रहा है, इत्यादि तरह तरह के काम में सव लगे हुए है और साथ ही साथ अपनी वनारसो अधकचरी तथा अक्खड भाषा में हसी दिल्लगी भी करते जाते हैं। इनकी बातें भी सुनने के ही लायक है । यद्यपि इससे किसी तरह का उपकार तो नही हो सकता परन्तु मनबहलाव जरूर है और एक प्रकार की जानकारी भी हो सकती है, अस्तु सुनिए तो सही। एक० । (जो भग धो रहा था) यार, देखो सारे दूकानदार ने मुफ्त ही चार पैसे ले लिए । हमे तो यह भग दो पैसे को जमा नही दिखाई देतो। यह देखो निचोडने पर मुट्ठी भर के भी नहीं होती। दूसरा० । (उचक के और देख के) हा यार, यह तो कुछ भी नही है। तू हू निरे गौखे ही रह्यो, पहिले काहे नहीं कहा, सारे की टोपी उतार लेते और ऐसा गड्डो देते कि जनम भर याद रखता । तीसरा० । ऐसे ही तो जमा मार मार के सरवा मुटा गया है, तोंद कैसी निकली हुई है सारे की । चौथा० । अच्छा अव कल समझेगे चोधर से। पाचवा० । कल पाती दफे धोरे से उसकी दोरी ही उलट देंगे, ज्यादै वोलेगा तो लड जायगे और गुल करेंगे कि चार पाना पैसा तो ले लिहिस है मगर भाग देता ही नही । छठा० । (जो भला आदमी और कुछ पैसे वाला भी मालूम होता क्योकि उसके गले में सोने की सिकरी पडी हुई थी) नही नही ऐसा न
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