३५ | पहिला हिस्सा |
नही हो सकता, वह जरूर प्रभाकरसिंह को खोज निकालेंगे और यहाँ अपने साथ ले कर ही आवेंगे ।' तब तव वह चौंक पडती है। आशा के फेर में पड कर उसका ध्यान सुरंग के मुहाने की तरफ जा पडता है और कुछ देर के लिये उघर ही की टकटको वध जाती है।
इस बीच मे इन्दु ने कई दफे गुलावसिंह से कहा, “तुम मुझे साथ लेकर इस सुरंग के बाहर निकलो, मैं खुद मर्दाना भेप बना कर उनका पता लगाऊंगी।" मगर गुलाबसिंह ने ऐसा करना स्वीकार न किया जिससे उसका चित्त और भी दुखी हो गया और उसने रोते ही कलपते बचीहुई रात और अगला दिन विता दिया । अन्त मे दिन बीत जाने पर सन्च्या के समय जब सूर्य भगवान श्रस्त हो रहे थे लाचार होकर गुलावसिह ने इन्दु से वादा किया कि 'अच्छा अगर कल तक भूतनाप लौट कर न पा जायगे तो मैं तुम्हे साथ लेकर नुरग के बाहर निकल चतू गा और फिर जैसा तुम कहोगी वैसा ही करूंगा।'
• गुलावसिंह के इस वादे से इन्दु को कुछ थोडी सो ढाढस मिल गई और उसने माहस करके अपने को सम्हाला । इसके बाद गुलाबसिंह से वोली कि 'इस समय में स्नान इत्यादि तो कुछ भी न करगी हा यदि तुम याना दो तो मैं थोड़ी देर के लिए नीचे उतर कर मैदान में दहलू और कुछ दिल वहताऊ ।" गुलाबसिंह ने उसकी इस बात को भी गनीमत समझा और घूमने फिरने की इजाजत दे दी।
इन्दुमति पा घूमने फिरने के लिए गुलावसिंह से प्रागा ले लेना केवल इतो अभिप्राय ये न पा कि वह अपना दिल बहलाये बल्कि उसकाअवल मतलब यह था कि यह अकेले मे बैठ कर या घूम फिर कर इस विषय पर विचार करे कि अब उमे क्या करना चाहिये क्योकि वह गुलाबसिंह की नमभाने वुझाने वाली बातो से दुखी हो गई थी। उनका हरदम पास बैठे रह फर दिलासा देना या टाटन बंधाना उसे बहुत बुरा मालूम हुग्रा और स बहाने से उसने अपना पीछा छुडाया।