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भूतनाथ
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मगर आश्चर्य में हू कि यहा कैसे आया !

जमना० । हम लोग घाटी के बाहर घूमने के लिए गई हुई थी जहा आपको बेहोश पड़े हुए देख कर उठा लाई । उस जगह एक घोडा भी मरा हुआ दिखाई दिया, कदाचित् वह आप ही का घोडा हो ।

प्रभा० । वेशक वह मेरा ही घोहा होगा, जानवर होकर भी उसने मेरी वही सहायता की और प्राश्चर्य है कि इतनी दूर तक उडाये हुए ले आया।

इन्दु० । क्या यह घोडा लहाई में से आपको भगा लाया था ?

प्रभा० । हा, लडाई ऐसो गहरी हो गई थी कि सन्ध्या हो जाने पर भी दोनो तरफ को फौजें वरावर दिल तोड कर लडती हो रह गई यहां तक कि आधी रात हो जाने पर मैं और महाराज सुरेन्द्रसिंह का सेनापति तथा कुप्रर वीरेन्द्रसिंह लटते हुए दुश्मन की फौज मे घुस गये पौर मारते हुए उस जगह पहुंचे जहाँ कम्बख्त शिवदत्त खडा हुना अपने सिपाहियों को लड़ने के लिए ललकार रहा था। चाद की रोशनी खूब फैली हुई थी और बहुत से माहताव भी जल रहे थे इसलिए एक दूसरे को पहिचानने में किसी तरह तकलीफ नहीं मालूम हो सकती थी । महाराज शिवदत्त मुझे अपने सामने देख कर झिझका और घोडा घुमा कर भागने लगा, मगर मैंने उसे भागने की मोहलत नही दी और एक हाथ तलवार का उसके सर पर ऐसा मारा कि वह घोडे की पीठ पर से लुढक कर जमीन पर पा रहा । मुझे उस समय वहुत जरूम लग चुके थे मोर में सुबह से उस समय तक बराबर लढते रहने के कारण बहुत ही सुस्त हो रहा था, तिस पर महाराज शिवदत्त के गिरते हो वहुत से दुश्मनो ने एक साथ मुझ पर हमला किया और चारो तरफ से घेर कर मारने लगे मगर मैं हताश न हुआ, दुश्मनो के वार को रोकता पौर तलवार चलाता हुआ उस मण्डली को चीर कर बाहर निकला। उस समय मेरा सर धूमने लगा और मैं दोनो हाथो से घोडे का गला थाम उससे लिपट गया । फिर मुझे कुछ भी खवर न रही, मैं नहीं कह सकता कि इसके आगे क्या हुआ’’