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दुसरा भाग
 

मैं तो व्यर्थ ही पीसा गया, मेरे हौसले सब मटियामेट हो गये और मै कहीं का भी न रहा, मैं क्या कहूं कि कैसी उम्मीदें अपने साथ लेकर आपके पास आया था, मगर...

इन्द्रदव० । प्रभाकरपिह, तुम एक दम से हताश न हो जायो श्रीर उद्योग का पल्ला मत छोडो । क्या कहूं , मैं बहुत दिनो से बीमार पड़ा हुआ हूँ और इस योग्य नहीं कि स्वयम् कुछ कर सकू तथापि मैंने अपने कई आदमी उन सभी की खोज में दौडा रखे है । दलीपशाह का भी बहुत दिनों से पता नहीं है, वे भी उन सभी के साथ ही गायब है।

प्रभा० । और भूतनाथ

इन्द्र० । भूतनाथ अपने मालिक के यहा स्थिर भाव से बैठा हुआ है मुद्दत से वह कही आता जाता नहीं है, रणधीरसिंहजी को जो कुछ उसकी तरफ से रंज हो गया था उसे भी भूतनाथ ने ठीक कर लिया। अब तो ऐसा मालूम होता है कि मानो भूतनाथ ने कभी रग वदला ही न था, घर साल भर में चार पांच दफे भूतनाथ मुभरो मिलने के लिये आया था मगर जमना और सरस्वती के विषय में न तो मैने ही खुद जिक्र किया और न उसने हो कुछ छेडा,यद्यपि मालूम होता है कि भूतनाथ से उसी विषय में छेड़छाड़ करने के लिये आया था मगर मैंने कुछ चर्चा उठाना मुनासिब न समझा।

प्रभा० । अस्तु अब क्या करना चाहिये तो कहिये । मैं तो आप पर बहुत भरोसा कर के यहा आया था परन्तु यह जान फर मुझे आश्चर्य हुआ की आपने जमना सरस्वती के लिये कुछ भी नहीं किया।

इन्द्र० । ऐसा मत कहो, मैने उस मनी के लिये बहुत उद्योग किया मगर लाचार हूँ की उद्योग का कोई अच्छा नतीजा न निकला, हा यह जरूर मागना पडेगा कि मैं स्वयम् अपने हाथ पैर से कुछ न कर सका, इसका सरने का नयच तो यह है कि में इस मामले में अपने को प्रगट करना उचित नहीं समझता, दसरे बीमारी से भी लाचार हो रहा है । पर जो कुछ होना था मो तो हो गया । अब तुम मा गये हो तो उघोग करो। ईश्वर