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१५ पहिला हिस्सा

हैउसे बहुत समझा बुझा कर ऐसा करने से बाज रक्खा और वादा किया कि बहुत जल्द उनका पता लगा कर उनके दुश्मनो को नीचा दिखाएंगे ।

ये सब बातें हो ही रही थी कि भूतनाथ के आदमी गुफापो और कन्दरामो में से निकल कर वहां आ पहुंचे जिन्हें भूतनाथ ने अपनी ऐयारी भापा मे कुछ समझा बुझा कर विदा किया, इसके बाद एक स्वच्छ और प्रशस्त गुफा मे जो उसके सास डेरे के बगल मे थी इन्दुमति का डेरा दिला कर और गुलावसिंह को उसके पास छोड कर वह भी उन दोनो से विदा हुया और अपने एक शागिर्द को साथ लेकर उसी सुरग की राह अपनी इस दिलचस्प पहाडी के बाहर हो गया।

जव भूतनाथ सुरंग के बाहर हुआ तो सूर्य भगवान उदय हो चुके थे। उसे जरूरी कामो अथवा नहाने धोने खाने पीने की कुछ भी फिक्र न थी, वह केवल प्रभाकरसिंह का पता लगाने की धुन मे था।

यह वह जमाना था जब चुनार की गद्दी पर महाराज शिवदक्ष को बैठे दो वर्प का समय बीत चुका था। उसकी ऐयाशी की चर्चा घर घर में फैल रही थी और बहुत से नानायक तथा लुच्चे शोहदे उसको जात से फायदा उठा रहे थे । उधर जमानिया मे दारोगा साहब की बदौलत तरह तरह की साजिश हो रही थी और उनकी कुमेटी का दौरदीरा खूब अच्छी तरह तरक्की कर रहा था* अस्तु इस समय खडे होकर सोचते हुए भूत नाथ का ध्यान एक दफे जमानिया की तरफ और फिर दूसरी दफे चुनारगढ की तरफ गया।

मुरंग से बाहर निकल कर एक घने पेड के नीचे भूतनाथ बैठ गया और उसने अपने शागिर्द से जिसका नाम भोलासिंह था कहा -

भूत० । भोलासिंह, मुझे इस बात का शक होता है कि किसी दुश्मन ने इस गोह का रास्ता देख लिया और मौका पाकर उसने प्रभाकरसिंह को पकड लिया है। ____________________________________________

  • सका खुलासा हाल 'चन्द्रकान्ता सन्तति' में लिया जा चुका है।