५६ दूमरा भाग राम० इन्द्रदेव को तो मैंने वहां नही देखा और न उनके विषय में कुछ सुना, मगर वे तो अापके मित्र हैं फिर प्रापके विरुद्ध वयो कोई कार्रवाई करेंगे? भूत० । हाँ मैं भी यही ख्याल करता हू, ग्वैर अब और बतानो क्या कया. रामदास०। प्रभाकरसिंह मेरे सामने ही वहां पहुंच गये थे मगर मै उनके विषय में कुछ विशेष हाल न जान सफा क्योंकि प्रौर ज्यादे दिन वहाँ रहने की हिम्मत न पड़ी। मुझे मालूम हो गया कि अब अगर और यहा रहूगा तो मेरा भेद खुल जायगा क्यो के दलीपशाह ने दो तीन दफे मुझे जाच की निगाह ने देखा, वस्तु लाचार हो मै बहाना करके एक लौडो के साथ जो सुरग का दर्वाजा सोलना और वन्द करना जानती थो घाटी के बाहर निकल पाया। भूत । तुम्हें सुरंग का दर्वाजा खोलने और बन्द करने को तीय मालूम हुई या नहीं? रामदास । नही लेकिन अगर दो चार दिन और वहाँ रहता तो शायद मालूम हो जाती। इतने ही में पानी बरसने लग गया और हवा में भी तेजी आ गई। रामदास । अव यहाँ से उठना चाहिये। भूत । हा चलो किसी पाड की जगह में चल कर माराम फरें । मेरी राय मे तो प्राइम घाटी में रहना मुनासिव न होगा. और साथ ही प्रव भविष्य के लिये बचे हुए बादमियो को प्रापुम में कोई इशारा कायम कर लेना चाहिये जिने मनाया होने पर हम लोग जाँच के पयाल ने बरता करें, जिसमे फिर कभी ऐमा पोसा न हो जैसा भोलासिंह के विषय में इमा है । तुम्हारा इशारा प्रयांत एक प्राम्य बन्द करके प्रणाम करना तो बहुत टोक है, तुम्हारे विषय में किसी तरह का घोषा नहीं हो रास्ता । रामदाम० । बहुत पुनासिव होगा, अब यह सोचना चाहिये कि हम सोग पनाराकहो कायम करेंगे। मनः । तुम हो जामो?
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