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६७ दूसरा भाग भूत० । मै समझ गया कि तुम बहादुर प्रादमी हो और तुम्हारे हाथ को यह तलवार बडी ही अनूठी है जिसके सबब से तुम और भी जबर्दस्त हो रहे हो । ( मुस्कुरा कर ) सच कहना यह तलवार तुमने कहा से पाई। पहिले तो यह तुम्हारे पास न थी, प्रगर होती तो उस वेज्जती के साथ तुम चुनारगढ से न मागते ? प्रमा० । ठीक है मगर इससे तुम्हें क्या मतलव, चाहे पाही से यह तलवार मुझे मिली हो। भूत । (मुलायमियत के माथ) नही नहीं प्रभाकर सिंह बुरा मत मानो, मेरी बातो का जवाब देने से तुम कुछ छोटे नहीं हो जानोगे । बतानो तो सही क्या यह तलवार जहर में बुझाई हुई है ? क्योकि इसका जस्म लगने के साथ ही नशा चढ प्राता है। प्रभा० । गदाचित ऐमा ही हो, म ठीक नहीं कह सकता! तः । देवो मेरे साथी लोग अभी तक वेहोश पडे हुए हैं। प्रभा० । अभी वी देर तक ये वेहोश पडे रहेगे मगर मरेंगे नहीं। तुम्हारी होती तो मैने खुद दूर कर दी है, और यह बतानो कि अव तुम मेरे गाय क्या किया चाहते हो ? भूत० । पुछ भी नही, मै जो कुछ वर चुना ह उनके लिए प्रापसे मापी मागता हूँ और चाहता हू कि पारन्दे के लिए हमारे पोर प्रापके योच सुलह हो जाय । प्रभा० । जैसा तुम बर्ताव करोगे में वैमा हो जवाब दूंगा, मुझे खास तौर पर तुम्हारे साप पिनी तरह को दुश्मनी नहीं है। भूत० । अच्छा तो पलिये में प्रापपो इस घाटी के बाहर पर पार्क पयोति रिना मेरी मदद के प्राप यहा से बाहर नहीं जा सकते। प्रमा० । चलो। भूत० । मगर में देखता हूँ कि प्राप बहुत जरमी हो रहे है और सून से प्रापका कपड़ा सरबतर हो रहा है, मुझे प्राज्ञा दीजिए तो मैं आपके