दूसरा भाग अभी तक मालूम नहीं हुआ था अस्तु उन्हें यह सुन कर वला दुःख हुप्रा और उन्होने दलीपशाह से कहा, "मेरे दोस्त. मुझे प्रभाकरसिंह के हाल पर अफ- सोस होता है । भूतनाथ ने भो यह काम अच्छा नहीं किया । खैर कोई चिन्ता नही, प्रभाकरसिंह को उसके कब्जे से निकाल लेना कोई बड़ी बात नही है । अव तुम सफर की तैयारी करो और जमना तथा सरस्वती के नाथ ही साथ प्रभाकरसिंह को मदद करो, मैं खुद तुम्हारे साथ चल कर प्रभाकर- सिंह को कैद से छुट्टी दिलाऊंगा!" इतना कह कर इन्द्रदेव दलीपशाह को कमरे के अन्दर ले गये और आधे घण्टे तक एकान्त में न मालूम क्या समझाते रहे, इसके बाद बाहर पाए पोर बहुत देर तक गुलाबसिंह से बातचीत करते रहे। आठवां क्यान भूतनाथ को जब अपनी घाटी में घुसने का रास्ता नहीं मिला था तो यह प्रभाकरसिंह को एक दूसरे ही स्थान में ले जाकर रख पाया था और अपने दो प्रादमी उनको हिफाजत के लिए छोड दिये थे। पर जव भूतनाय महात्मा की कृपा से अपनी सुहावनी घाटी में पहुच गया, सुरंग का गस्ता उसके लिये साफ हो गया, पर्वाजा खोलने और बन्द करने की तीव मिल गई बल्कि उसके साथ ही साथ वैनन्दान दौलत का भी मालिक बन बैठा, तो उसया होसला वनिस्वत पहिले फे चौगुना बढ़ गया और उसने चाहा कि प्रभाकरसिंह को भी लाफर उसी घाटी में रम छोडे प्रस्तु महात्माजी को विदा करने के बाद दूसरे दिन वहाँ से रवाना हुअा और सन्ध्या होते होते तक प्रभाकरसिंह को इस घाटी में ले पाया । प्रभाकरसिंह वेहोशा के नशे में दहोश घे पोर उनके हाथ में हपयाडी तथा पैरो में वेडी पदी हुई थी। भूतनाय ने उन्हें एक बहुत बड़ी साफ पोर सुन्दर चट्टान पर रख दिया, पर की बेटी गोल दो, और लवलसा सुंपा कर उनको देहोशी दूर को। जब प्रभाकरसिंह उठ कर बैठ गये तो इस तरह बातचीत होने लगो:- . 3
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