भूतनाथ कि वह दलीप० । यह एक अनूठी नात है, खरबूजा खा भी लें और वह काटा भी न जाय ! मैं तो समझता हूं वह एक दिन जरूर जमना और सरस्वती को मार डालेगा। इन्द्र० । तही ऐसा तो न करेगा। दलीप० । अजी पाप तो निरे ही साधू हैं, इतने बडे ऐयार होकर भो घोखा खाते हैं। मगर इसमें प्रापका कोई कसूर नहीं है, ईश्वर ने प्रापका दिल ही ऐमा नर्म बनाया है कि किसी की बुराई पर ध्यान नहीं देते, मगर भाई- जान में तो उससे बरावर खटका रहता है। इससे आप यह न समझिये कि मै उसका दुश्मन हू, आपकी तरह में भी यही चाहता हू किसी तरह अच्छे ढर्रे पर पा जाय मगर यह उम्मीद नहीं । अच्छा यह वताइये कि उन लोगों के विषय में आजकल क्या कार्रवाई हो रही है अर्थात् जमना और सरस्वती वया कर रही हैं ? इन्द्र० । बस गदाधरसिंह के पीछे पड़ी हुई हैं, प्राज कई दिन हुए कि उसे गिरफ्तार भी कर लिया था मगर सिर्फ डरा धमका के छोड दिया, क्योकि मैंने अच्छी तरह समझा दिया कि दुश्मन को सता के पोर दुख दे के बदला लेना चाहिये न कि जान से मार के । वे वेचारिया तो मेरी बात मान जायगी मगर गदाधरसिंह की तरफ से मैं डरता हूं ऐसा न हो कि वह उन दोनो का सफाया कर दे। दलीप० । ( मुस्कुरा कर ) मगर आप तो उसे नेक बना रहे है, उस पर भरोसा कर रहे है । मभी अभी कह चुके हैं कि वह उन दोनो के साथ बुराई कमी न करेगा। इन्द्र० । प्राशा तो ऐसी ही है जो मैं कह चुका हूं, फिर भी डरता हू क्योकि पाजकल उसका रंग ढग और रहन सहन ठीक नहीं है। दलीप० ०। पाप तो अच्छो दोतर्फी बात करते हैं। इन्द्र० । ऐसा नहीं है मेरे दोस्त, में खूब समभता हूं कि वह माज फल विगहा दुपा है मगर मैं उसे सुधारना चाहता हूं, मेरा खयाल है कि
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