१५ | पहिला हिस्सा |
अब पिछले पहर की रात बीत रही है, चारो तरफ सन्नाटा छाया हुप्रा है, इन चारो के पैरो तले दवने वाले सूखे पत्तो को चरमराहट के सिवाय और किसी तरह की अावाज सुनाई नहीं देती। भूतनाथ इन तीनो को साय लिए हुए एक प्रनूठे और अनजान रास्ते से बात की बात में पहाडी के नीचे उतर पाया और इसके बाद दक्षिण की तरफ जाने लगा। जगल ही जगल लगभग प्राधा कोस के जाने वाद ये लोग पुन. एक पहाड के नीचे पहचे। इस जगह का जगल वहुत ही धना तया रास्ता घूमघुमौवा र पथरीला था। भूतनाथ इस तरह घूमता और चक्कर देता हुना पेचीली पगडण्डियो पर जाने लगा कि कोई अनजान आदमी उसकी नकल नहीं कर सकता था, अथवायो समझना चाहिये कि भूतनाथ के मकान का रास्ता ही ऐसा पेचीला और भयानक था कि एक दो दफे का जानकार श्रादमी भी धोखे में नाकर भटक सकता था, किसी अनजान का जाना तो बहुत ही कठिन बात है।
कुछ ऊपर चढने के वाद घूमता फिरता भूतनाथ एक ऐसी जगह पहुचा जहा पत्थरो के बडे बडे ढोको के अन्दर छिपी हुई एक गुफा थी। इन तीनो को लिए हुए भूतनाथ उस गुफा के अन्दर घुसा। प्रागे भागे भूतनाथ, उसके पीछे गुलावसिंह, उसके बाद इन्दुमति और सबके पोछे प्रभाकरसिंह जाने लगे। कुछ दूर गुफा के अन्दर जाने वाद भूतनाथ ने अपने ऐयारी के बटुए में से सामान निकाल कर मोमबत्ती जलाई और उसकी रोशनी के सहारे अपने साथियो को ले जाने लगा। लगभग पचीस गज के जाने वाद एका चौमुहानो मिली अर्थात् एक रास्ता सोधी तरफ चला गया था, दूसरा बांई तरफ, घोर तीसरी सुरग दाहिनी तरफ चली गई थी, तथा चौथा रास्ता वह था जिगर से वे आये थे। यहा तक तो रास्ता खुलासा था मगर मागे का रास्ता बहुत ही वारीक और तग था जिसमें दो प्रादमो वरावर ने मिल कर नही चल सकते थे।
यहाँ पर पाकर भूतनाथ अटक गया और मोमबत्ती की रोशनी में मागे की तीनो सुरगो को बता कर अपने साथियो से बोला, "हमारे मकान