भूतनाथ ४२ पेश करने के लिये दलीपशाह और शम्भू-अभी तक जीते हैं। अस्तु मेरा यह विचार पक्का है कि नि सन्देह,शम्भू और दलीपशाह ने भेद खोल दिया और सब के पहिले उन्होंने ज़रूर अपने दोस्त इन्द्रदेव से वह हाल बयान किया होगा। ऐसी भवस्था में ताज्जुब नही कि इन्द्रदेव ही इन दोनों के पक्षपाती बने हो। एक० । तो इन्द्रदेव को क्या प्रापसे कुछ दुश्मनी है ? भूत० । नही, इस बात का तो मुझे गुमान भी नही होता । एक० । और यदि इन्द्रदेव चाहें, तो क्या प्रापको कुछ सता नही सकते ? या आपको गिरस्तार करके सजा नहीं दे सकते ? भूत० । वेशक इन्द्रदेव जो कुछ चाहें कर सकते है, उनकी ताकत का कोई अन्दाजा नही कर सकता, वे एक बहुत बडे तिलिस्म के राजा समझे जाते हैं, मुझसे वे बहुत ज्यादे जबर्दस्त है और ऐयारी में भी मैं उन्हें अपने से बढ़ कर मानता हूं । यद्यपि एक विषय में मैं अपने को उनका कसूरवार मानता हू मगर फिर भी कह सकता हूं कि वे मेरे दोस्त हैं। दूसरा० । तो पाप ऐसे दोस्त पर इस तरह का शक क्यो करते है ? भूत । दिल ही तो है, खयाल ही तो है ! जब आदमी किसी मुसीबत में गिरफ्तार होता है तो उसके सोच विचार और शक का कोई हिसाब नहीं रहता । मैं इस समय मुसीवत को जिन्दगी बिता रहा हूँ । 'मुझसे दो तीन काम बहुत बुरे हो गये हैं जिनमें से एक दयाराम वाली वारदात है। इसमें मुझे बहुत ही बडा धोखा हुा । मैने कुछ जान बूझ कर अपने दोस्त को नहीं मारा, मगर खैर वह जो कुछ होना था हो गया, प्रब क्या मैं अपने को दुश्मन के हाथ सहज ही में सौंप दू गा ? यद्यपि इन्द्रदेव को मैं अद्भुत व्यक्ति मानता हू मगर में अपने को भी कुछ समझता हूँ, मुझे अपनी ऐयारी पर घमण्ड है, इसलिये मैं इन्द्रदेव से नहीं डरता और तुम लोगों से कह देता है कि दलोपशाह इन्द्रदेव का दोस्त है तो क्षण हुमा मगर मैं उसे मारे विना फभी न छोड गा, उस कम्बख्त से अपना बदला जरूर लूगा । केवल उसो को नहीं मारूंगा बल्कि उसके खानदान में किसी को जोता न रहने दूगा।
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