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भूतनाथ शक्तिमान जगदीश्वर के रचे हुए मायामय जगत का यह एक मकाट्य नियम ही है और इसी नियम के अनुसार ईश्वर भले बुरे कर्मों का बदला मनुष्य को देता है। एक देह को छोड कर जब जीव दूसरी देह में प्रवेश करता है सब अपने भले बुरे कर्मों का फल दूसरे देह में भोगता है, मगर इसका उसे कुछ भी परिज्ञान नही होता मोर उस सुख दुख का कारण न समझ कर वह सहज ही में उस कर्म फल को मथवा सुख दुख को भोग लेता है या मोगा करता है । वह इस बात को नहीं समझ सकता कि पूर्वजन्म में मैंने 'यह पाप किया था जिसका बदला इस तरह पर मिल रहा है, बल्कि उसे वह एक मामूली बात समझता है मौर दु ख को दूर करने का उद्योग किया फरता है, यही कारण है कि वह पुन पापकर्म में प्रवृत्त हो जाता है। मगर मनुष्य जानता कि यह दु ख उसके विस पाप कर्म का फल है तो कदाचित् वह पुन उस पाप कर्म में प्रवृत्त होने का साहस न करता परन्तु उस महामाया की माया कुछ कही नही जाती और समझ में नहीं पाता कि ऐसा क्यों होता है । कदाचित् उस दयामय के दयाभाव ही का यह कारण हो। इसी से मैं कहता हूँ कि दुश्मन को मार डालने से कोई फल नहीं होता उसके पाप कर्म का बदला ईश्वर तो उसे देवेहीगा परन्तु 'मैं भी तो कुछ बदला देदू' यही मेरी इच्छा रहती है चाहे किसी मत के पक्षपाती लोग इसे भी ईश्वर की इच्छा हो कहें परन्तु मेरे चित्त को जो सन्तोष होता है वह विशेषता इसमें मधिक अवश्य है। विमला नि सन्देह ऐसा ही है। इन्द्रदेव० । दुश्मन बहुत दिनो तक जीता रह फर पाप का प्रायश्चित भोगता रहे सो प्रच्छा, जितने ही ज्यादे दिनों तक वह पश्चात्ताप करे उतना ही मन्छा, उसके शरीर को जितना ही कष्ट भोगना पडे उतना ही उत्तम, वह अपने सचाई के साथ बदला देने वाले को प्रसन्न और हसता हुआ देख कर जितना ही कुढ़े जितना ही शमिन्दा हो भौर जितना ही दुख पा सके उतना ही शुभ समझना चाहिये । इसी विचार से मैं कहता हूँ कि मतनाथ