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भूतनाथ
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गदाधरसिंह को खेंचे लिये जाती थी।

कला०। अब तुम जल्दी जल्दी चलते क्यों नहीं? रास्ता बहुत चलना है और तुम्हारी सताई हुई प्यास के मारे बेचैन हो रही हूँ', इस घोह के बाहर निकल कर तब पानी पीऊंगी, और तुम्हारा यह हाल है कि चीटी की तरह कदम बढ़ाते हो, मेरे पीछे पीछे आने में भी तुम्हारी यह दशा है, तुम कैसे ऐयार हो?

गदा०। मालूम होता है कि मुझे आज तुमसे भी कुछ सीखना पडेगा, मेरी ऐयारी में जो कुछ कसर थी उसे अब कदाचित् तुम लोग ही पूरा करोगी।

कला०। वास्तव में ऐसी ही बात है, देखो यहा एक दर्वाजा आया है, जरा सम्हल कर चौखट लाघना नहीं ठोकर खाओगे।

उसी समय किसी तरह के खटके की आवाज आई मोर मालूम हुआ दर्वाजा खुल गया। गदाधरसिंह बहुत होशियारी से इस नीयत से हाथ बढ़ा कर टटोलता हुआ आगे बढ़ा कि दर्वाजे का पता लगाने और मालुम करे कि वह कैसा है या किस तरह से खुलता है मगर चौखट लाघ जाने पर भी जब इस बात का कुछ पता न लगा तब उसने चिढ़ कर कला से कहा, "क्या खाली चौखठ ही थी या यहां तुमने कोई दर्वाजा खोला है ?"

कला०। इस बात के जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं, मैंने तुमसे यह वादा नही किया है कि यहाँ के सब भेद बता दूंगी।

गदा०। मैं यहां के भेद जानना नहीं चाहता मगर इस सुरंग का हाल तो तुम्हें बताना ही पडेगा।

कला०। इस भरोसे मत रहना, मैं वादे के मुताविक तुम्हें इस जगह के बाहर कर दूंंगी और तुम प्रतिज्ञानुसार मुझे दलीपशाह के पास पहुंचा देना।

गदा०। क्या तुम नही जानती कि अभी तक तुम मेरे कब्जे में हो और में जितना चाहे तुम्हें सता सकता हूँ?

कला०। तुम्हारे ऐसे वेवकूफ ऐयार के मुंह से ऐसी बात निकले तो कोई ताज्जुव की बात नहीं है! अजी तुम यही गनीमत समझो कि इस घाटी