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भूतनाथ
१८
 

उसके चेहरे पर किसी तरह का रंग तो चढ़ा हुआ था ही नही जो धोने से 'दूर हो जाता बल्कि एक प्रकार की झिल्ली चढी हुई थी जिस पर पानी का कुछ भी असर नहीं हो सकता था, अस्तु गदाधरसिंह को विश्वास हो गया कि इसकी सूरत बदली हुई नही है। उसने (भूतनाथ ने) इसके हाथ पैर खोल दिये और घाटी के बाहर चलने के लिये कहा।

गदा०। क्या तुम इस दिन के समय मुझे यहाँ से बाहर ले जा सकती हो?

कला । हां ले जा सकती हूँ।

गदा०। मगर तुम्हारे सगी साथी किसी जगह से छिपे हुए देख सकते हैं।

कला०। औवल तो शायद ऐसा न होगा, दूसरे अगर कोई दूर से देखता भी होगा तो जब तक वह मेरे पास पहुँँचेगा तब तक मैं तुम्हें लिए इस घाटी के बाहर हो जाऊंगी, फिर मुझे बचा लेना तुम्हारा काम है।

गदा०। (जोश के साथ) ओह, घाटी के बाहर हो जाने पर फिर तुम्हारा कोई क्या बिगाड सकता है।

कला०। तो बस फिर जल्दी करो, मगर हा एक बात तो रह ही गई!

गदा०। वह क्या?

कला०। तुमने मुझसे इस बात को प्रतिज्ञा नही की कि दलीपशाह से मुलाकात करा दोगे।

गदा०। मै तो पहिले ही वादा कर चुका हूं कि तुम्हें दलीपशाह के पास ले चलूंंगा।

कला०। वादा और बात है प्रतिज्ञा और बात है, मै इस बारे में तुमसे कसम खिला के प्रतिज्ञा करा लेना चाहती हूँँ। तुम क्षत्रीय हो अस्तु खंजर जिसे दुर्गा समझते हो हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करो कि वादा पूरा करोगे।

गदा०। (कुछ देर तक सोचने के बाद खंजर हाथ में लेकर) अच्छा लो में कसम खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हें दलीपशाह के घर पहुचा दूंंगा।

कला०। हाँ, बस मेरो दिलजमयी हो गई।