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दूसरा भाग
 


देखने से मालूम होता है कि कुछ और चढ जाने से पहाड खत्म हो जायगा और फिर सरपट मैदान दिखाई देगा पर वास्तव में ऐसा नही है।

इस छोटे से मैदान में पत्थर के कई छोटे बड़े ढोके मौजूद हैं जो मैदान को मामूली सफाई में बाधा डालते है और पत्थर के बडे चट्टान भी बहुतायत से दिखाई दे रहे है जिनकी वजह से वह जमीन कुछ सुन्दर मालूम होती है मगर इस वक्त धूप की गर्मी के समय सभी बातें बुरी और भयानक जान पड़ रही हैं।

इस मैदान में केवल ढाल (पलास) के कई पेड दिखाई दे रहे हैं सो भी एक साथ नही, जिनसे किसी तरह का आराम मिलने की आशा हो सके। इन्ही पेडो में से एक के साथ हम बेचारी कला को कमन्द के सहारे वघे हुए और उसके सामने गदाघरसिंह अर्थात् भूतनाथ को खडे देख रहे हैं, अब सुनिए कि इन दोनो में क्या बातें हो रही हैं।

गदाधर०। रात के समय जब मैंने तुझे गिरफ्तार किया तब यही समझे हुए था कि कला और विमला में से किसी एक को पकड पाया है मगर अब मैं देखता हूँ कि तू कोईई और ही औरत है।

कला०। तो क्या उस समय तुमने वहाँ पर कला और विमला को अच्छी तरह देखा या पहिचाना था?

गदा०। नहीं पहिचाना तो नहीं था मगर बातें जरूर की थी और वे बातें भी ऐसे ढंग की थी जिनसे उनका कला और विमला ही होना साबित होता था।

कला०। वह तुम्हारा भ्रम था, इस घाटी में कला मोर विमला नही रहती।

गदा०। (हंस कर) बहुत अच्छे! अब थोडी देर में कह दोगी कि
__________________________________________________________________* पाठकों को याद होगा कि कला और विमला हर वक्त अपनी असली सूरत को एक झिल्लो से छिपाए रहती थी। इस समय भी कला के चेहरे पर वही झिल्लो है।