भूगोल [वर्ष १६ सकती है । इस राज्य में साल भर में लगभग ५० कम्बल और निवाड़ बनाने का काम भी अच्छा इंच पानी बरसता है। किसी वर्ष न २४ इंच से कम होता है। और न ६५ इंच से अधिक वर्षा यहां हुई है। पहले जब चीन में बहुत अफीम खाई और पी अफीम या पोस्ता इस राज्य की प्रधान फसल जाती थी तब भोपाल राज्य को अफीम के कार-बार है। वैसे यहां ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, तिलहन, से बड़ा लाभ हुआ। चीक या कच्ची अफ्रीम को गेहूँ, चना, कपास आदि कई तरह की फसलें होती किसान से लेने के बाद अलसी के तेल में भिगोते हैं। धान, गन्ना, तरकारी को ही सींचने की जरूरत हैं । इससे वह सूखने नहीं पाती है । इस अफ्रीम को पड़ती है। गेहूँ, जौ और मकई को बहुत कम दुहरे कपड़े के बोरे में भर कर डेढ़ महीने तक सिंचाई की जरूरत पड़ती है । जिस भाग में अँधेरे कमरे में रखते हैं । जब सब तेल बह जाता जमीन अच्छी नहीं है और केवल घास उगती है है तब वर्षा होने पर बोरों की अफीम ताँबे के वहां जानवर पाले जाते हैं । गाय, बैल, भैंस, बकरी बर्तनों ( चाकों ) में उँडेल दी जाती है । इन्हीं चाकों आदि यहां जानवर बहुत पाले जाते हैं। इनके परातों में उलट कर माँड़ते हैं । गाढ़ा होने पर में अफीम को दबाते और माँड़ते हैं। फिर इसे बेचने के लिये इस राज्य में कई मेले लगते हैं। पहाड़ी भाग में जङ्गल हैं । लेकिन जङ्गल को उन्नत अफीम के एक-एक सेर के गोले बना लिये जाते हैं। इन गोलों को रब्बा या जेठा पानी में भिगो कर करने का यहां कोई प्रयत्न नहीं किया गया है । आम, अफ्रीम को सूखे पत्तों में लपेट लेते हैं । तेल निकल अमलतास, आँवला, वहेरा, बांस, बरगद, बेल, गूलर, इमली, जामुन, नीम, पीपल, सेमल, हल्दू के पहले अफीम की जाँच होती है । अफ़ीम को दस जाने पर अफीम के गोलों को काट लेते हैं। बेचने यहाँ के प्रधान पेड़ हैं। मिनट तक उबालते हैं और सोखता के तीन परतों भोपाल राज्य की ७ लाख जन-संख्या में लगभग से छानते हैं । अगर यह एकदम साफ छन जाती १३ फ्री सदी मुसलमान और ८७ फ्री सदी हिन्दू हैं। है तो अच्छी समझी जाती है। अगर काराज या इन्हीं में कुछ मूल निवासी गोंड और जैन भी बर्तन पर कुछ तलछट छूट जाता है तो यह अच्छी शामिल हैं । भोपाल शहर में मुसलमानों की प्रधा- नहीं होती है । कपड़ों को भिगो कर जो रद्दी अफीम नता है। तयार होती है वह रब्बा या जेठा पानी कहलाती है। भोपाल राज्य का सब से बड़ा कारबार खेती है। यह पंजाब में बहुत बिकती है । कई गाँवों में मोटा कपड़ा (खहर) और खारूत्रा औरङ्गजेब के शासन काल में सन् १६६६ में दोस्त- बुना जाता है । सीहोर में बढ़िया मलमल बनती है। मुहम्मद खां नाम का एक अफ़ग़ान हिन्दुस्तान में यहीं पगड़ी में सोने चाँदी के तार की कढ़ाई होती है आया। पहले वह लोहारी जलालाबाद पहुँचा जहां और पीतल की चिलमें बनती हैं । छिपानेर में नर्मदा अफगानों का एक उपनिवेश था । लेकिन वहाँ के पत्थर का गारा ( Mortars ) बनता है । भैरौंदा उसने किसी झगड़े में एक आदमी को मार डाला। में दरी और चिचिली में चमड़े के सन्दूक बनते हैं। पकड़े जाने के डर से वहां से भाग कर दिल्ली जेथारी में कम्बल और देउरी में सरौता बनाये जाते आया । यहां वह शाही सेना से मिल गया जो हैं। अष्टा में पगड़ी, कमरबन्द और दूसरे बढ़िया मालवा में मरहठों पर हमला करने आ रही थी। कपड़े बनते हैं । भोपाल शहर तरह तरह के जेवर मालवा पहुंचने पर दोस्तमुहम्मद ने सीतामऊ के के लिये प्रसिद्ध है। भोपाल शहर का गुटका भी राजा के यहां नौकरी कर ली । इसके बाद वह मङ्गल- प्रसिद्ध है, जो सुपारी, कत्था, लौंग, इलायची, पिस्ता गढ़ के ठाकुर आनन्द सिंह सोलकी के यहां नौकर और दूसरे मसालों को मिला कर तयार किया हो गया । ठाकुर और उनकी मां के मरने पर दोस्त- जाता है और चूना में मिला कर चबाया जाता है। मुहम्मद ने उनके खजाने पर अधिकार कर लिया। भोपाल के सेन्ट्रल जेल में ऊनी-सूती कालीनें, फिर उसने जगदीशपुर के राजा की ओर नजर - 0
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