छतरपुर व्यवसाय- बदनामी थी कि बड़ा पुत्र राज्य का अधिक भाग न (१) खेती-इस पर ३८,२०७ मनुष्य अर्थात् कुल पावे। इसलिये यह बात अंग्रेज़ सरकार ने तै की कि राज्य की जन संख्या के २१ प्रतिशत का गुजारा होता दूसरे पुत्रों के मरने पर उनकी जायदाद प्रताप को ही है । १६,८०० लोग मजदूरी करके पेट पालते हैं। दे दी जायगी। ७,१०० लकड़ी का कार्य करते हैं । ३,५६० मनुष्य ४ मई सन् १८१६ को सोनशाह की मृत्यु हो कपड़ा कातते बुनते हैं। ४००० व्यक्ति जूते बनाते हैं। गई। सोनशाह ने अयोध्या में एक मन्दिर, वृन्दावन ३००० व्यक्ति जानवर पाल कर अपना जीवन चलाते में टट्टी नामक कुञ्ज, चित्रकूट में रामचन्द्रजी का हैं । २,५०० मनुष्य बांस की टोकरियाँ आदि बना कर मन्दिर और राजनगर में धनुषधारी मन्दिर बनवाया । निर्वाह करते हैं। इसके अलावा और भी छोटे मोटे प्रतापसिंह ( १८१६ - ५४ )- कार्य हैं जिनमें लोग लगे हुए हैं। प्रतापसिंह ३२ साल की अवस्था में गद्दी पर संक्षित इतिहास बैठे । सनद के अनुसार १५ जुलाई सन् १८१६ ई० इस राज्य का पुराना इतिहास, ओरछा और को १८२ गाँव प्रताप को मिले जिनसे ६६ लाख पन्ना राज्य का इतिहास है। की आय थी । भाइयों के पास ८७,६०० रुपये के १७८ सोनशाह (१७८५-१८१६)- गाँव थे । भाइयों के मरने पर वह भी प्रताप को कुँवर सोनशाह पंवार ने अठारहवीं सदी के मिले । अन्त में इस राज्य की नींव डाली । हिन्दूपत के मरने १८२७ ई० में प्रतापसिंह को राजा बहादुर की पर पसके पुत्र पन्ना महाराज सरनतसिंह को विवश पदवी प्रदान की गई। प्रतापसिंह बड़ा ही चतुर होकर १७७६ में राज्य छोड़ कर भागना पड़ा। ये राजा था। मरते समय इसने राज्य को बड़ी अच्छी छतरपुर के समीप राजनगर में रहने लगे। सरनत दशा में छोड़ा । १८३२ ई० में राजा किशोरसिंह पन्ना सिंह के मरने पर उनके नाबालिग़ पुत्र हीरासिंह ने अंग्रेज सरकार से आज्ञा लेकर अपने राज-काज के पालन-पोषण और देख भाल का भार सोनशाह का भार भी प्रताप को सौंप दिया। १८४३ ई० में पँवार पर पड़ा जो राज्य की सेना के एक अफसर अंग्रेज़ सरकार ने कण्टोन्मेन्ट के लिये १६०० रु० थे। सोनशाह ने हीरासिंह के लड़कपन से लाभ सालाना पर राजा प्रताप से भूमि ली उठाया और जागीर पर १७८५ ई० में अपना अधि १८५२ में जगतराज को प्रताप ने गोद लेना कार जमा लिया। जब मरहठों का हमला हुआ चाहा; किन्तु कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने नामंजूर तो इसने अपनी जागीर और भी बढ़ाई । किया । १८ मई १८५४ को राजा की मृत्यु हो गई। १७८२ और १७८६ में दो सनदें मिलीं जिससे जगतराज ( १८५४-६७ )- पता चलता है कि इन्हीं दो सालों के बीच सोनशाह इस समय जगतराज की अवस्था केवल साल ने जागीर पर अधिकार जमाया होगा। की थी। इसलिये राज-काज का भार प्रतापसिंह की १८१२ में सोनशाह ने अपने राज्य का बटवारा दूसरी रानी को सौंपा गया। १८५७ में रानी ने नौ अपने ५ पुत्रों के बीच किया। प्रतापसिंह, पृथ्वीसिंह, गाँव के भागे हुये लोगों को शरण दी और दीवान हिन्दूपत और बख्तसिंह चार सगे भाई थे और देशपत को मिला कर अपने राज्य में शान्ति स्थापित पांचवां हीरासिंह रखेली का पुत्र था । किये रही । देशपत एक बासी सरदार था। उसके कुछ दिनों बाद छोटे भाइयों के बहकाने पर फिर मारने के लिये इनाम था । १८६३ में रानी को हटाकर बटवारा किया गया जिसमें बड़े पुत्र प्रताप की जागीर अँग्रेज़ अफसर ई. टामसन रक्खे गये । इसी बीच बहुत कम कर दी गई। ब्रिटिश सरकार ने बटवारे देशपत मारा गया और उसके मारनेवालों को डोनी को न माना इसलिये कि अव्वल यह प्रताप के और महटोल के गांव इनाम में मिले । १८८७ में लिये बड़ा अन्याय था दूसरे बुन्देलखण्ड की इससे जगत राज को राज्य सौंप दिया गया। किन्तु उसकी
पृष्ठ:भूगोल.djvu/१०२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।