पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/९७

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वली की हिंदी 'वली' की हिंदी के प्रसंग में ध्यान देने की बात यह है कि उनकी शायरी का ढंग विलायती था न कि देशी। दक्खिन में मुसलमानों की स्थिति बहुत कुछ विदेशी थी। 'दक्खिनी' को वे उसी प्रकार अपनी मातृभाषा समझते थे, जिस तरह 'फारसी को उत्तरी हिंद के मुसलमान । मतलब यह कि वली की शायरी के कद्रदाँ मुसलमान ही थे न कि हिंदूमात्र । इसी लिये शायद वली ने बार-बार ईरान और तूरान का नाम लियां है और अपने को फारसी के कवियों के समकक्ष कहा भी है। निदान कहना यह पड़ता है कि वली के समय में दक्खिन में पढ़े-लिखे मुसलमानों की शिष्ट भाषा 'दक्खिनी थी। 'दक्खिनी' को हम चाहें तो उनकी 'उर्दू' या 'शाही जबान' कह सकते हैं । वली की इस शाही जबान में भाषा और संस्कृत के शब्दों की . कमी नहीं है। देखिए तो सही, वली का शब्द-कोश कैसा है- मुझ घट में ऐ निघरघट है शौक तुझ यूँघट का। देखें से लट गया दिल तेरी जुल्फ़ का लटका । कर याद तुझ कपट कां पड़ते हैं अश्क टपटप । मुख बात बोलता हूँ शिकवः तेरी, कपट का।। तुझ नैन देखने को दिल ठाठ कर चुका था। शमजे के देख ठट को नाचार होके टटका ।।