पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/७३

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भाषा का प्रश्न राष्ट्रभाषा के लिये हिंदोस्तानी शब्द को चालू कर देने का परिणाम यह हुआ है कि 'हिंदी' एक अलग गँवारी बोली मान ली गई है। मुसलमानों ने 'हिंदी' का विरोध और 'हिंदोस्तानी' का आग्रह एक विशेष उद्देश्य से किया। प्रारंभ में अंगरेजों को इस बात का भ्रम हो गया था कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है। वे उसे 'हिंदवी समझते थे। फारसीवालों ने कभी हिंदवी को हिंदी से अलग अथवा केवल हिंदुओं की भाया नहीं कहा। उनके सामने हिंदी और हिंदवी एक ही भाषा थीं। दोनों का अर्थ भी एक ही था। 'हिंदू' का वास्तविक अर्थ . हिंदी यानी हिंद का निवासी है। सर सैयद ने भी एक जगह स्पष्ट कहा है- “यही मु.ख्तलिफ वजूहात हैं जिनकी विना पर मैं इन दोनों कौमों को, जो हिंदोस्तान में आवाद हैं, एक लफ्ज़ से ताबीर करता हूँ कि 'हिंदू' याने हिंदोस्तान की रहनेवाली कौम । - (हयात जावेद, अलीगढ़ संस्करण पृ० ५६०1) सर सैयद् यदि इसी विचार पर आरूढ़ रहते और 'हिंदू' की जगह हिंदी का व्यवहार करते तो आज हिंदी-उर्दू का द्वंद्व न छिड़ता और हमारी सारी शक्ति व्यर्थ के विवादों में नष्ट न. होती। अस्तु, अँगरेजों ने हिंदी को हिंदवी और फिर उसके आधार पर उसे हिंदुओं की भाषा अपने आप ही मान लिया और राज-काज की चलती सरकारी भाषा को विमोह-वश शुद्ध हिंदुस्तानी समझ लिया। इस प्रकार हिंदुस्तानी का अर्थ दरबारी या उदू हो गया और फिर हिंदवी के आधार पर वह