पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/७२

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राष्ट्रभाषा का नाम कमेटी बनी थी। उसके विधाता तथा संत्री स्वयं सैयद साहब थे। हिंदी के विषय में उनकी अलग और असल राय यह थी- "मुसलमानों के हक में अव यह वात मुझीद नहीं है कि कोई अम्र उनके फ़ायदह और उनकी हालत के मुनासिब किया जावे बल्कि तमामतर अमूर उनकी हालत और फायदह के बरखिलाफ होने, उनके हक में निहायत कायदह व शेंगे। हमारी राय यह है कि तमाम देहाती और तहसीली मकतब विल्कुल हिंदी और नागरी कर दिए जाएँ। तमाम अदालतों की जबान और खत बिलकुल हिदी और नागरी कर दिए जाएँ ताकि मुसलमानों की हालत ऐसी अवतर और खराब हो जावे कि उनकी तमाम चीजों और तमाम जरूरि बातें बिलकुल नेस्त और नाबूद हो जावें और किसी किसा का रोज़गार उनको मुयस्सर न हो।" सर सैयद ने कभी उदू को मुसलमानों की भाषा कहा था और उसे हिंदी का नाम भी दिया था पर आगे चलकर उन्होंने 'हिंदी' का घोर विरोध किया और मुसलमानों को कट्टर हिंदी-द्वेपी बना दिया। उन्हें 'हिंदी' शब्द से भी चिढ़ हो गई और इसका नाम लेना अधर्म समझा गया । 'हिंदी' शब्द के सामने 'उर्दू' नाम टिक नहीं सकता। उसमें अनेक दोष हैं। उसके बारह दोषों का उल्लेख कर सैयद सुलेमान साहब ने अपील की है कि उर्दू वाले अपनी भापा को अब हिंदोस्तानी कई जिससे वह थासानी से हिंदोस्तान की मुल्की जवान यानी हमारी राष्ट्रभाषा मान ली जाय ।